लिखित 2005
मैं न तो किसी संगठन का सदस्य हूँ, न किसी राज नैतिक दल का, न किसी धार्मिक पंथ का। मैं किसी संस्था के बंधनों में अपने को जकड़ा हुआ पाना नहीं चाहता हूँ। न ही मुझमें कोई अभिलाषा है राजनीति के दलदल में फँसने की। मेरे लेखन में यदि कोई त्रुटि पाएँ तो समझें कि वह जान बूझकर नहीं हुआ और उसे ठीक करने के लिए आप मुझे सदा तैयार पाएँगे। हिंदी मेरी मातृभाषा नहीं है अतएव आशा है कि आप मेरी भाषा संबंधी भूलों को क्षमा करेंगे।
मैं हिंदू पैदा हुआ, मैं हिंदू हूँ और हिंदू ही रहूँगा। मेरे इष्टदेव श्री सिद्धि विनायक गणपति को मैंने प्रत्येक स्थान पर पाया चाहे वह मंदिर हो, या मस्जिद, या गिरजा। अपने पाकिस्तानी ड्राइवर मलिक के साथ मैं शारजाह के मस्जिद में गया और उसके बगल में बैठ कर अपने इष्टदेव को याद किया, जबकि उसने अपनी नमाज़ पढ़ी। तंज़ानियन-ओमानी हमूद हमदून बिन मुहम्मद के घर पर, उनके परिवार के साथ, एक ही बहुत बड़ी थाली में से, हम सभी ने एक साथ भोजन किया, उनके एक करीबी रिश्तेदार की मौत के बाद, मस्जिद से लौट कर। मुम्बई में एक कैथोलिक चर्च के मास के दौरान मैं गिरजे में मौजूद था। कैनेडा के एक प्रोटेस्टेंट चर्च में सरमन के समय मैं उपस्थित रहा। मुम्बई में यहूदियों के सिनगॉग एवं पारसियों के टेम्पल में मैं गया। कैनेडा के एक बौद्धों के मंदिर में मैंने मेडिटेशन किया।
एक हिंदू, यह नहीं सोचता, कि मेरा ईश्वर ही अकेला सच्चा ईश्वर है, और बाक़ी सभी के ईश्वर, झूठे ईश्वर हैं, जैसा कि यहूदी सोचते हैं, ईसाई सोचते हैं, मुसलमान सोचते हैं जिसका मुझे तब ज्ञान न था। मोहनदास करमचन्द (महात्मा ?) गांधी तथा उनकी देखा देखी अनेक हिन्दू धर्मगुरुओं ने जो कहा उसे मैं सत्य समझता रहा। चाहे कहीं भी मैं रहा, हिंदू भारतवर्ष या मुस्लिम मिड्ल-ईस्ट या मुस्लिम फ़ार-ईस्ट या ईसाई वेस्ट, मैंने सभी धर्मों को एक जैसा जाना, और माना। मैंने जाने कितने लोगों को नौकरी के लिए चुना पर कभी यह न सोचा कि वह हिंदू था, या मुसलमान, या ईसाई। उन दिनों मेरी सोच, धर्मों की भिन्नता की ओर न जाती, क्योंकि मैं इस संदर्भ में अनजान था। मैं जानता नहीं था कि विभिन्न धर्म वास्तव में क्या सिखाते हैं। मैं एक ऐसी काल्पनिक दुनिया में जीया, जिसमें सभी धर्म समान हुआ करते थे!
अभी भी मैंने उस कड़वी सच्चाई को न जाना था, क्योंकि मैंने इस बात की आवश्यकता कभी न महसूस की थी, कि मुझे स्वयं विभिन्न धर्मों का अध्ययन करना चाहिए। मैं बड़ा सुखी था, उन ज्ञानियों पर पूर्णतया विश्वास कर, जिन्होने मुझे उस महान असत्य का पाठ पढ़ाया, कि सभी धर्म समान हैं, एवं सभी धर्म प्रेम और शांति की शिक्षा देते हैं। उन्होंने ऐसा क्यों किया? क्या वे स्वयं अज्ञानी थे, और उसी अज्ञान को, अपने अनुयायियों में बाँटते रहे थे? या फिर सत्य की प्रतीति थी उन्हें, पर किसी निहित स्वार्थ की पूर्ति हेतु, वे असत्य को सत्य का रूप देते रहे थे?
जीवन के पचास वर्ष बीत चुके थे, और तब जाकर मैं बैठा, विभिन्न धर्मों की शिक्षाओं का अध्ययन करने। मैंने पाया कि, ये शिक्षाएँ बहुत ही स्पष्ट रूप से झलकती हैं उन धर्मों के अनुयायियों की सोच, एवं आचरण में। गहराई में गया, तो मैंने जाना किस प्रकार से, प्रत्येक धर्म ने, मानव इतिहास, एवं वर्तमान की घटनाओं को रूप दिया। मैंने देखा कि धर्म, इतिहास एवं वर्तमान की घटनाओं के बीच एक गहरा, और सीधा संबंध है। संदेश बहुत ही स्पष्ट था, हम इन जानकारियों को नज़र अंदाज तो कर सकते हैं, पर अपनी ही क्षति करके। अब मैं बाँटना चाहता हूँ, अपनी इन नई जानकारियों को, केवल उनके साथ, जिन्हें परवाह हो इनकी।
मैं एक ऐसे परिवार में जन्मा था, जिसमें अध्यात्म, एवं उच्च शिक्षा का प्रचलन, अनेक पीढ़ियों से रहा था। मेरे पिता स्वर्णपदक प्राप्त इंजीनियर थे। पितामह डॉक्टर थे। प्रपितामह शिक्षाविद् एवं लेखक थे। प्रपितामह के पिता, व्यवसाय त्याग कर, अपने अंतिम जीवनकाल में, संसार में रह कर भी, एक योगी बन गए थे। सभी के अंश मुझे मिले। मातृपक्ष के पितामह एक जाने-माने शल्यचिकित्सक थे। परंपरा के अनुसार, मेरा जन्म, मातृपक्ष के पितामह के घर, बाँकुड़ा (पश्चिम बंगाल) में 25 जनवरी 1952 को हुआ था। इस प्रकार मैं एक हिंदू बंगाली परिवार में जन्मा, पला और बड़ा हुआ। एक समय था जब मैं श्री राम कृष्ण परम हंस देव का अनन्य भक्त भी रहा था।
विश्वविद्यालय की पदवी, एवं भारतवर्ष तथा विदेश से, तीन व्यवसायिक योग्यताओं को प्राप्त कर, मुझे कई देशों के निगमित क्षेत्र में, उच्च स्तर पर, व्यापक प्रशासनिक कार्यभार सँभालने का, अवसर भी मिला। इस बीच मुझे, बीस विभिन्न देशों के नागरिकों के साथ, निकट संपर्क में कार्य करने का, एवं उन्हें जानने का भी, समुचित अवसर मिला। पचीस वर्षों तक, अथक परिश्रम करने के पश्चात, अब मैंने कार्य निवृत्त होकर, एकांत वास का आश्रय लिया है।
मेरे आराध्य, श्री नारायण की दया से, मेरे जीवन की महत्वाकांक्षाएँ एवं सांसारिक आकांक्षाएँ पूर्ण हो चुकी हैं। अब मैं, अपने समय, एवं परिश्रम, के बदले में, कुछ भी नहीं चाहता। इस कारण, मैं कार्य में पूर्ण मनोयोग के साथ, एकांत ही चाहता हूँ। मेरा कार्य, केवल उन्हीं लोगों के लिए है, जो इसकी महत्ता को पहचानते हैं। मुझमें अब कोई इच्छा नहीं रही, कि मैं उन व्यक्तियों को समझाने में, अपना समय, एवं अपनी ऊर्जा नष्ट करूँ, जो मेरी बात को समझने की स्थिति तक, अभी नहीं पहुँचे। ऐसे व्यक्ति, इन लेखों की महत्ता को तभी समझेंगे जब पानी सर तक आ पहुँचेगा, एवं डूबने की संभावना उन्हें बहुत ही निकट से दिखने लगेगी। फिर भी मुझे अपना दायित्व, पूर्ण समर्पण की भावना के साथ, निभाते जाना है, एवं उस कर्म के परिणाम को, श्री नारायण को समर्पित करते हुए, आगे बढ़ते जाना है। आज यही मेरी पूजा है।