2011 जून 03, 01 08 दोपहर
पिछले दो दिनों से स्टार उत्सव पर 4 से 5 बजे के बीच बी आर चोपड़ा कृत महाभारत के वे प्रसंग दिखाये जा रहे थे जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को गीता का उपदेश देते हैं। गीता का उपदेश देते हुए भगवान श्रीकृष्ण द्रौपदी चीर हरण के बारे में अर्जुन से कहते हैं।
मैं उन महानुभावों से जिन्होंने मूल श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ी है यह जानना चाहूँगा कि गीता के किस अध्याय के किस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से द्रौपदी चीर हरण के बारे में कहा है?
जब मैं मूल श्रीमद्भगवद्गीता की बात कर रहा हूँ तो मेरा तात्पर्य है गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पॉकेट बुक जो केवल गीता के श्लोक संस्कृत में तथा उनका अनुवाद हिन्दी में देते हैं। मैं नहीं चाहता कि आप उन अर्ध ज्ञानियों की अपनी सोच से प्रभावित हों जो उन्होंने अपनी सही या गलत या मिश्रित शिक्षा तथा सोच के आधार पर जोड़ कर गीता को एक वर्णसंकर कृति बनाकर रख दिया है।
वर्णसंकर आवश्यक नहीं कि केवल जन्म से ही हों, आधुनिक शिक्षा का परिणाम भी हो सकता है जो ईसाई मिशनरियों द्वारा हमारी सोच को विकृत करने के लिये थोड़ी-थोड़ी मात्रा में पिछले छः पीढ़ियों से जोड़ी गई है। और फिर बी आर चोपड़ा तो उस जमाने के एम-ए (अंग्रेज़ी) थे जो आजकल के पी-एच-डी (अंग्रेज़ी) को भी मात देने में सक्षम है। उस एम-ए (अंग्रेज़ी) ने ईसाई-अंग्रेज़ों का साहित्य तो घोंट डाला होगा और उसकी सोच भी उससे प्रभावित हुए बिना न रह पायी होगी।
तो समाज सुधार की तीव्र इच्छा से प्रेरित बी आर चोपड़ा ने सारे महाभारत में स्थान-स्थान पर इतना मसला-कुचला है कि आज वह एक मज़ाक का विषय बन कर रह गया है। टीवी विज्ञापन चाहे मोबाइल फोन का हो या चॉकलेट का, पाँच पतियों वाली द्रौपदी तथा उसके चीर हरण की भूमिका के आधार विज्ञापन तैयार किया जाता है। दर्शक उसे मज़ाक समझ लेते हैं जो ऐसे मज़ाक बनाने वालों का मनोबल बढ़ाता है और उन्हें अन्य विज्ञापन उस भूमिका के आधार पर बनाने के लिए प्रेरित करता है। वे इसे क्रिएटिविटी (सृजनात्मक योग्यता) कहते हैं।
बी आर चोपड़ा द्रौपदी चीर हरण को बार-बार लगातार घसीट कर महाभारत के विभिन्न स्थानों पर लाते रहे और सीरियल के लेखक राही मासूम रज़ा की कलम से इस विषय को इतना तूल देते कि करोड़ों दर्शकों के मन पर उनकी समाज सुधार की तीव्र आकांक्षा की लकीर खिंच जाती। बी आर चोपड़ा तो स्वयं बड़ा बन गए पर हिन्दू समाज को बहुत छोटा बना दिया।
प्रश्न उठता है कि उनके मन में यह समाज सुधार की तीव्र आकांक्षा मुस्लिम तथा ईसाई समाज के संदर्भ में क्यों नहीं आयी? वहाँ तो ढेरों मसाले हैं कि उनकी सारी जिन्दगी बीत जाती पर मसाला खत्म न होता। पर उन्होंने इस बात पर कभी जोर नहीं दिया। क्या इसलिए कि उनकी रही-सही ज़िन्दगी भी जीने के लायक नहीं छोड़ी जाती?
जब से ईसाई हिन्दू समाज के शिक्षक बन बैठे तब से प्रत्येक समाज सुधारक इस बात के लिए लालायित रहा कि कैसे वह (अपनी सोच के अनुसार इस सड़े-गले हिन्दू समाज में) सुधार लाये। इनका अर्ध ज्ञान तथा इनकी अ-दूरदृष्टि इन्हें समाज का भला करने की गलतफ़हमी में समाज को और भी ग्लानि-ग्रसित तथा कमज़ोर बनाता रहा है। ऐसे ही एक विकट समाज सुधारक दयानन्द सरस्वती की अजूबी कहानी पढ़ें कौन अपना कौन पराया में।