गीता का उपदेश कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में ही क्यों
श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय पर भाष्य लिखते हुए एक प्रश्न जो मेरे मन में उठा, वह यह था—
भगवान श्री कृष्ण ने गीता का उपदेश कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि पर ही क्यों दिया? यदि भगवान चाहते कि आने वाले युगों में लोग गीता को केवल मोक्ष एवं त्याग की दृष्टि से ही देखें तो वह अर्जुन को वन के किसी कुटिया में ले जाते।
ताकि लोग अधर्म को केवल जानें ही नहीं, बल्कि अच्छी तरह पहचानें भी
धर्म की
व्याख्या करने के
पश्चात जब मैं
अधर्म पर टीका करने लगा तो मुझे इस बात की
अनुभूति हुई कि
अधर्म को
हमारे जीवन से
संबंधित उदाहरणों के
द्वारा
स्पष्ट करना ही उचित होगा,
ताकि लोग
अधर्म को केवल
जानें ही नहीं,
बल्कि
अच्छी तरह
पहचानें भी। यह
आवश्यक
प्रतीत हुआ
क्योंकि आज
अधर्म,
धर्म की नकाब पहने होता है। धर्म का
मुखौटा पहने आज
अधर्म अपने पर
फैलाता जा रहा है। धर्म और
अधर्म में भेद करना
साधारण
मनुष्य के लिए कठिन हो गया है। ऐसी
परिस्थिति में यदि हम
उदाहरण,
अपने
चारों तरफ के
वातावरण से
चुनें,
तो
सम्भवतः
साधारण
जनसमुदाय के लिए उसे
पहचानना सहज हो
जाये। अब जब
उदाहरण
चुनने की बात आयी तो मुझे
इतिहास की ओर रूख करना पड़ा। और
जैसे-जैसे मैं
डुबकी
लगाता गया
वैसे-वैसे ऐसे सब तथ्य
सामने आते गए कि
हैरान रह
जायें। धन और
मीडिया
(समाचार पत्र,
टीवी,
इंटर्नेट,
इत्यादि) के
द्वारा,
सत्य को
असत्य का रूप,
एवं
असत्य को सत्य का रूप देना,
आज
कितना
व्यापक हो गया है,
इसका
अनुभव आप को मेरे
शोधों से होता
रहेगा।
धीरे-धीरे
अधर्म के
उदाहरण इतने अधिक जमा हो गए और उनका
अंदरूनी
चेहरा कुछ ऐसा
दिखने लगा कि
उन्हें
श्रीमद्भगवद्गीता पर
टीकाओं का
हिस्सा बना कर रखना
मुश्किल हो गया। तब
आरम्भ हुई यह
शृंखला....
जब
अधर्म का हो बोलबाला,
और धर्म का दम घुटता हो,
तो
उठती
है
एक
आवाज़...