वे जो, हिन्दू देवी-देवताओं के बारे में, इतनी गंदी-गंदी बातें कहते हैं

पाठकों की प्रतिकृया

12 मार्च 2006

महामण्डलेश्वर श्रोत्रिय ब्रहमनिष्ठ परमहंस परिव्राजकाचार्य
श्री श्री 1008 डॉ स्वामी शिव स्वरूपानन्द सरस्वती
भागवत, ज्योतिष, वेदान्त, षडदर्शनाचार्य (पी-एच.डी.)
श्री मानव कल्याण आश्रम, कनखल, हरिद्वार पिन कोड 249 408

"परमप्रिय आत्म स्वरूप मानोज रखित जी
जय श्री कृष्ण।

आपकी पुस्तक मिली। पढ़ कर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि कम से कम कोई तो ऐसा व्यक्ति है जो विदेश में अपमानित देवी-देवताओं के विषय में बोलने का साहस रखता है। यह हमारी सनातन संस्कृति का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि सब कुछ होने के बाद भी कोई हिन्दू बोलने को तैयार नहीं है। आज आवश्यकता है कि ईसाइयों एवं मुसलमानों द्वारा जो सनातन धर्म के साथ में कुकृत्य किये जा रहे हैं उनका जवाब दिया जाय। जिसके लिए नवीन पीढ़ी को भी तैयार करना होगा।

मैं भी अपने प्रवचनों में इस बात को उठाता रहता हूँ तथा सभी को इन सभी बातों का विरोध करने के लिए भी कहता हूँ। इस तरह के प्रयास की मैं आपकी प्रशंसा करता हूँ तथा आगामी समय में मेरे लायक जो भी सेवा हो निःसंकोच बताने का कष्ट करें। जिससे अन्य सभी समाज के सामने इन चीजों को रखा जा सके।

आपके प्रयास की पुनः पुनः सराहना करते हुए आपसे आग्रह भी है कि अपने इस कार्य को आगे बढ़ाते रहें तथा हम सभी को भी अवगत कराते रहें।"

आपका शुभेच्छु
महामण्डलेश्वर डॉ स्वामी शिवस्वरूपानन्द सरस्वती
हस्ताक्षर

10 अप्रैल 2006

डॉ ओम प्रकाश उर्फ़ 'विवेकानन्द प्रकाश',
ग्राम छोटीपुरवा, पोस्ट इस्माइलपुर, जिला बाराबंकी,
उप्र, पिन 225301

"आप द्वारा प्रेषित 'कहानी एक षड़यंत्र की' पुस्तिका प्राप्त हुई। इसके पहले 'हिन्दू देवी-देवताओं' के प्रति अश्लील प्रचार संबंधी पुस्तिका प्राप्त हुई थी, जिसे पढ़कर अन्य जागरूक लोगों को पढ़वा रहा हूँ। लखनऊ के माननीय श्री रवि कान्त खरे बाबाजी से 'मज़हब ही सिखाता है आपस में बैर रखना' कुछ पुस्तिकायें प्राप्त हुईं थीं जिनका क्षेत्र में क्रमवार अध्ययन हो रहा है। आपके विचार प्रभावशाली एवम प्रेरक होने के साथ ही हिन्दू समाज के जागरण हेतु महत्वपूर्ण हैं। इसके लिए हम आपके प्रति आभार व्यक्त करते हुए साधुवाद देते हैं। यदि सम्भव हो तो ये पुस्तिकायें अपनी सुविधानुसार भेजने का कष्ट करें जिन्हें हम लोगों में वितरित कर आपके विचार जनसामान्य तक पहुँचाते हुए जनजागरण में अपने कर्तव्य का पालन कर सकें।" डॉ ओम प्रकाश (10-4-2006)
8 जुलाई 2006

स्वामी नर्मदानन्द सरस्वती 'हरिदास',
फार्मा ट्रेडर्स के सामने, राइट टाउन,
जबलपुर, म प्र 482-002

"आपके द्वारा प्रेषित 4 पुस्तकें (16, 18, 19, 20) प्राप्त हो गई हैं तदर्थ बहुशः साधुवाद। आपकी सभी पुस्तकें सनातन धर्मियों की आखें खोलने वाली, सुन्दर रूप में उत्तम विचार-प्रणाली को लेकर, पुष्ट तर्क से संपुटित सरल, बोधगम्य भाषा में लिखित हैं जिससे समाज समाधान की दिशा में अग्रसर हो सकता है। भैया हमारे राम की 67 वर्ष की आयु है शरीर रोगवश जीर्ण हो गया है सो हम तो भगवन्नाम एवं भगवत महिमा लेखन ही यकिंचित कर पाते हैं। अतएव आपके इस जनता को चैतन्य करने के कार्य में हार्दिक शुभकामनायें हमारी आपके साथ हैं और सदैव रहेंगी। शेष श्री हरिकृपा।" स्वामी नर्मदानन्द सरस्वती 'हरिदास' (8-7-2006)

उत्तर — यहाँ पुस्तक क्रमांक 20 की विषय-वस्तु का एक और पहलू उजागर होता है। हम सभी जीवन के अलग-2 मोड़ों पर खड़े हैं। यही निर्धारण करता है हमारे आज के कर्तव्य का। जब मनुष्य का शरीर जराजीर्ण हो चुका हो एवं वह इहलोक त्यागकर परलोक की ओर एक-एक कदम बढ़ा रहा होता है, तो भगवद्चिन्तन ही सर्वथा उचित है। मानोज रखित (20-11-2006)

मार्च 2006

श्री प्रमोद प्रकाश सक्सेना, 
91 चित्रगुप्त नगर, कोटरा,
भोपाल, म प्र

"आपने निश्चित रूप से इस पुस्तक को लिखने में काफ़ी परिश्रम किया है और इसमें जो तथ्य प्रकट किए हैं वे किसी भी चिन्तनशील व्यक्ति पर भावनात्मक प्रभाव डालने में सक्षम हैं। पुस्तक में वर्णित अनेक तथ्य सत्य प्रतीत होते हैं, यह वास्तव में अत्यन्त दुःख की बात है कि हमारा हिन्दू समाज बहुत सारे तथ्यों से अनभिज्ञ है और अनेक मौकों पर उसकी एकजुटता का अभाव विपरीत स्थितियों को जन्म देता है।
आपने इस बाबत एक इतिहास की भांति कुछ तथ्यों पर प्रकाश डाला किन्तु इन सब विपरीत परिस्थितियों में समाधान क्या हो सकता है, इसका उल्लेख अथवा संकेत नहीं किया। आपने जब इतना विशद अध्ययन और श्रम किया है तब आपके दिमाग में कहीं न कहीं उसका समाधान अथवा उसके लिए किये जाने वाले क्रियाकलापों का विचार अवश्य होगा। मैं चाहूँगा कि वह दिशादर्शन आप प्रस्तुत करें तो आपके साथ अधिक से अधिक लोग क्रमशः जुड़ते जायेंगे।
अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद के लिए मै अपनी सेवायें प्रस्तुत कर सकता हूँ। हाँ, विषय-वस्तु महत्वपूर्ण होना आवश्यक है।"

उत्तर (2006) — श्री प्रमोद प्रकाश सक्सेना जी का आभार मानते हुए कि उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न उठाये हैं, मैं उन्हें एवं बाकी पाठकों को - जिनके भी मन में ये प्रश्न उठे होंगे - उन सभी को यह आश्वासन देना चाहूँगा कि समाधान की बातें अवश्य होंगी पर उपयुक्त समय आने पर।

संकेत का कोई एक पहलू प्रत्येक पुस्तक में छुपा होता है पर उसे समाधान का नाम देकर नहीं। हमें एक-एक कदम लेना होगा। राह बीहड़ है। अँधेरा घना है। पहले रोशनी की जरूरत है। राह की पहचान आवश्यक है। तब न वे आगे बढ़ेंगे जो मेरे साथ जुडेंगे।

स्थिति की जटिलता से उन्हें पहले पूरी तरह अवगत कराना है। तब समाधान स्वयं नज़र आने लगेगा। थोड़ा समय लगेगा, पर उतना नहीं जितना उन्हें लगा था हमें तोड़ने के लिए (1835 से 1990)।

युद्ध की ओर अग्रसर होने से पहले शत्रु की पूरी पहचान, उसकी शक्तियों एवं आसक्तियों की समझ, अपनी जड़ों की मजबूती की परख, एवं कुरुक्षेत्र की रणभूमि पर खड़े नारायण के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना जगानी आवश्यक है।

क्रान्ति का बीज मस्तिष्क में बोया जायेगा, जड़ें हृदय तक पहुँचेंगी और मजबूत बनेंगीं। तब उठ खड़ा होगा आम हिन्दू। राजनीति उसे उद्वेलित न कर सकेगी। धर्म उसे प्रेरित करेगा अपने कर्म की ओर।

वह होगा तब, जब आयेगी आम हिन्दू को "धर्म" की सही समझ। आज हर कोई धर्म का व्याख्याता बन बैठा है। और उनमें से सबसे अधिक पहुँच है टीवी सीरियल वालों की जिनके जरिए पटकथा लेखक, निर्माता, निर्देशक आपस में तय कर लेते हैं - क्या होनी चाहिए गीता की व्याख्या अलग-अलग पारिवारिक स्थितियों में।

उदाहरण के लिए, आज (दिनांक 27-3-2006 समय 2030-2100) 'स्टार प्लस' पर प्रेरणा नामक मुख्य पात्र के सामने एक कठिन समस्या रखी गई 'देख प्रेरणा, उधर जाता है तेरे धर्म का रास्ता, और ठीक उसकी विपरीत दिशा में जाता है वह तेरा कर्म का रास्ता। अब तू किसको चुनेगी जब तेरे धर्म व कर्म हैं एक दूसरे के ठीक विपरीत?' दुविधा में पड़े प्रेरणा को, पृष्ठभूमि में गीता के ये दो श्लोक बार-बार याद दिलाये जाते रहे 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन' एवं'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत'। उसके बाद आती है एक आवाज़ पृष्ठभूमि से 'तुझे चुनना है कर्म का रास्ता, जब हो वह धर्म के रास्ते के ठीक विपरीत।'

इस प्रकार, करोड़ों दर्शकों की ज्ञान की पोंटली में समा गया गीता की व्याख्या का एक नया पहलू - धर्म व कर्म के रास्ते एक-दूसरे के ठीक विपरीत भी हो सकते हैं। यदि कर्म को धर्म के विरुद्ध खड़े होने की आवश्यकता हुई तो कहीं न कहीं कर्म एवं धर्म की समझ में कोई खोट रह गई है।

ऐसी खोटी व्याख्याओं का पृष्ठांकन (इन्डॉःसमेंट) "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" एवं "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत" जैसे ऐतहासिक महत्व के उद्धरणों के परिप्रेक्ष्य में नहीं किया जाना चाहिए। कर्म एवं धर्म जैसी महत्वपूर्ण संकल्पनाओं को जन-साधारण के समक्ष प्रस्तुत करते हुए कुछ सावधानी बरती जानी चाहिए। यह नौटंकी लिखने वालों का काम नहीं। 

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को प्रेरित किया था उस कर्म के लिए जो धर्म के विपरीत नहीं, बल्कि धर्म की रक्षा के लिए था। यह बात सम्भवतः इन लोगों की समझ के बाहर है।

कुछ इसी प्रकार 'स्टार प्लस' के एक और अत्यधिक लोकप्रिय सीरियल में (सन 2002-03) पटकथा लेखक, निर्माता, निर्देशक ने कहानी के एक वयस्क पात्र के माध्यम से, करोड़ों हिन्दुओं को यह सिखा दिया कि भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि - "एक झूठ सौ सच के बराबर होता है, यदि उस झूठ से किसी का भला होता हो"।

जब मैं 'स्टार प्लस' के वेब-साइट पर गया और दर्शकों के पुनर्निवेशन (फ़ीडबैक) के स्थान पर इस प्रसंग का जिक्र करते हुए उनसे पूछा कि बताइये मुझे गीता के किस अध्याय में, कौन से श्लोक में ऐसा कहा गया है कि 'एक झूठ सौ सच के बराबर होता है...'। उनका कोई उत्तर न आया मेरे ईमेल पर।

उन दिनों मैंने गीता का गभीरता से अध्ययन किया था और लगभग सारी गीता मेरे हृदय में स्थित थी (आज नहीं है), और मैं भली-भाँति जानता था कि श्रीमद्भग्वद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने 'एक झूठ को सौ सच के बराबर' कहीं भी, किसी भी श्लोक में नहीं कहा है। मैने उनसे अपने फीडबैक में यह भी आग्रह किया था कि यदि वे मुझे गीता का वह अध्याय और वह श्लोक नहीं बता पाते हैं तो उन्हें अपने सीरीयल के आरम्भ में अपनी गलती स्वीकार करनी चाहिए ताकि दर्शक इस भ्रम में न जीयें, और उससे भी महत्वपूर्ण, कि इस मिथ्या को गीता की आड़ में, उनकी ही तरह, आगे फैलाते न रहें। पर ऐसी कोई स्वीकारोक्ति मुझे देखने को न मिली।

मैं सोचता रहा, क्या वह कबीर ही था जो कह गया था "एक अंधा दूसरे अंधे को राह दिखायेगा, तो दोनों कुँए में जा गिरेंगे"। क्या यही बात लागू होती है इन टीवी सीरियलों के बारे में?

टिप्पणी - यद्यपि मैं इस बात को अस्वीकार नहीं करता हूँ कि इन 'एकता कपूर' के सीरियलों में अनेक अच्छी बातें भी रहती हैं, विशेषकर इनका प्रयास आजकी पीढ़ी को हमारी संस्कृति से बाँधे रखने की दिशा में। यह अलग बात है कि यह प्रयास भी अनेक स्थानों पर सही-गलत कि खिचड़ी जैसी हुआ करती है। इन सबके बावजूद, 'आज की पैदावार एकता कपूर' के इन प्रयासों में बहुत-कुछ अच्छा भी है, जिसे किसी भी तरह नजरंदाज नहीं किया जा सकता है। मानोज रखित (मार्च, अप्रैल तथा नवम्बर 2006)  

टिप्पणी (31 जनवरी 2012, 03:06 AM) — तुरंत अंग्रेज़ी की समस्त पुस्तकों की एक-एक प्रति उन्हें रजिस्ट्री डाक द्वारा भेज दी जो उन्हें मिल भी गई। महीनों बीत गए, प्रतीक्षा करता रहा, फिर उन्हें पत्र लिख कर हिन्दी रूपान्तर में प्रगति के बारे में पूछा। उन्होंने मुझे लिखा उनकी शिक्षा साधारण स्तर की है तथा अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद करने जैसी योग्यता उनमें है ही नहीं। यह पढ़कर मेरे मन में सवाल उठा कि "हाँ, विषय-वस्तु महत्वपूर्ण होना आवश्यक है" कह कर उन्होंने क्या जतलाना चाहा था?

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