ईसाई धर्मावलम्बी, हिन्दू देवी-देवताओं को, किन गंदी नज़रों से देखते हैं?
उनकी नजर में हिन्दू धर्म एक नारकीय/राक्षसी धर्म है, असभ्य लोगों का धर्म है, केवल ईसाई बनाकर हिंदुओं को सुसभ्य बनाया जा सकता है
अमरीका के ईसाई धर्माध्यक्षों के परिवार में जन्मे डॉ डेविड फ़्रावले (वामदेव शास्त्री) अपनी आत्मकथा स्वरूप पुस्तक में लिखते हैं - "वे हमेशा धन माँगते हैं अमरीकी जनसमुदाय से कि हम भारतवर्ष में जाकर हिंदुओं का धर्म परिवर्तन करना चाहते हैं। हम यह देखते हैं नित्य विभिन्न टेलिविज़न चैनेलों पर। पैट रॉबर्टसन जो उनके मुख्य धार्मिक नेताओं में से एक हैं उन्होंने कहा है कि हिंदू धर्म एक नारकीय/राक्षसी धर्म है । वे हिंदू देवताओं को जानवरों के सिरों के साथ दिखाते हैं और कहते हैं जरा देखो इन्हें कितने असभ्य हैं ये लोग। वे भारतवर्ष के राज नैतिक एवं सामाजिक समस्याओं को अमरीकी जन समुदाय के समक्ष रख कर कहते हैं यह सब हिंदू धर्म के कारण हैं। वे अमरीकी जन समुदाय से कहते हैं कि हमें धन दीजिए ताकि हम भारतवर्ष जाकर उन्हें इस भयावह हिंदू धर्म के चंगुल से छुड़ाएँ और उन्हें ईसाई बना सकें।" ISBN 81-85990-60-3
पश्चिमी देशों में लाखों-करोड़ों व्यक्ति, हिंदूधर्म के बारे में, इन धारणाओं के साथ जीते हैं
आप अमरीका में रहते होंगे, पर सैकड़ों में से उन्हीं पाँच-सात चैनलों को देखते होंगे जिनमें आपकी रुचि है। अतः आप न तो बुरा देखते हैं, न बुरा सुनते हैं, न आपको बुरा लगता है। पर अमरीका और कैनेडा में ऐसे लाखों गोरी चमड़ी वाले होंगे जो उन चैनलों को देखते हैं और हिंदुओं के बारे में ऐसी-ही धारणाओं के साथ जीते हैं। आप भारतवर्ष में रहते हैं, आपको वे अमरीकी चैनल देखने को मिलते नहीं। आप न बुरा देखते हैं, न बुरा सुनते हैं, न बुरा मानते हैं।
अधिकांशतः हिंदू धर्मगुरू इन समस्यायों के प्रति जागरूक नहीं हैं और इसकी 'तोड़' के बारे में प्रयत्नशील नहीं दिखायी देते हैं
अमरीका में आप अपने गुरु के पास जाते हैं, उनका अपना एक सम्प्रदाय जैसा होता है। वहाँ पाँच-सौ हिंदुओं में दो-तीन गोरी चमड़ी वाले भी होते हैं। अनुयायी उनके पाँव छूते हैं, उनका पंथ अपने पर फैला रहा होता है। आप भी खुश, आप के गुरू भी खुश। किसी को क्या पड़ी है कि सार्वजनिक रूप से विरोध करें कि हिन्दू धर्म का अपमान हम नहीं सह सकते।
किसी ने आपको सिखा दिया है कि 'बुरा मत सुनो, बुरा मत देखो, बुरा मत कहो' और आपने उसे अपना 'कवच' जैसा बना लिया है
आप भारतवर्ष में रहते हैं, अपनी पसन्द की दो-चार चैनलों को देखते हैं। उन चैनलों को आप देखते नहीं जिनमें हिन्दूओं के विरुद्ध उट-पटांग बातें दिखायी जाती हैं। इस प्रकार आप न बुरा देखते हैं, न बुरा सुनते हैं, न बुरा मानते हैं।
वे मुट्ठीभर जो आपको लगातार सचेत किये रखना चाहते हैं, उनसे आपको 'परहेज' है
ऐसी पत्र-पत्रिकायें जो आपको हिन्दू धर्म के विरुद्ध हो रहे अभियानों के बारे में सचेत करते रहते हैं उन्हें आप पढ़ना नहीं चाहते क्योंकि आपकी दृष्टि में वे सब उग्रवादी हैं, साम्प्रदायिक हैं, धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं (उदाहरण के लिए 'हिन्दू वॉइस' एवं 'सनातन प्रभात')।
स्वाभिमान को तजकर आप उदार बनने की चेष्टा में लगे हैं
आपकी सोच कुछ ऐसी बन चुकी है कि यदि कोई आपको कहता है कि 'मेरे भाई, तुमने तो मुझे केवल एक थप्पड़ मारा है, एक और मार दो' तो आप उसे महान आत्मा घोषित कर देंगे। मानसिक नपुंसकता की महिमा आपके दिलो-दिमाग पर इस तरह छा चुकी है कि स्वाभिमान जैसा शब्द आपके शब्दकोश से कोसों दूर जा चुका है।
क्षात्रधर्म तो आप भुला बैठे और गीता को जाने क्या समझ लिया है
क्षात्रधर्म तो आपने भुला दिया है क्योंकि आपके दिग्दर्शकों ने आपको समझाया कि भगवद्गीता आपको त्याग का सन्देश देती है, आपको अन्तर्मुखी बन कर ईश्वर की साधना में लीन होने को कहती है। महाभारत तो एक पारिवारिक कलह एवं अनावश्यक रक्तपात की कहानी है, अतः उसमें सीख लेने जैसी कोई बात नहीं है।
कोई आपसे यह नहीं कहता कि भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश कुरुक्षेत्र की रणभूमि में ही क्यों दिया, त्याग और ईश्वर प्राप्ति की बातें करनी थीं तो अर्जुन को लेकर किसी वन में क्यों न चले गए?
भगवान श्री कृष्ण जानते थे कि एक समय आयेगा जब मानव-जीवन अपने आप में एक रणक्षेत्र बन जायेगा और आज हम उसी स्थिति में पहुँच गए हैं। आज गीता के संदेश को एक बार फिर से समझने की आवश्यकता है, और वह भी एक नई दृष्टि से।
उनके शब्दों में अमरनाथ की यात्रा का उद्देश्य है विनाश के देवता शिव के कामवासना के अंगों की पूजा
डॉ डेविड फ़्रावले (वामदेव शास्त्री) लिखते हैं -
"न्यूयॉर्क टाइम्स अमरनाथ की तीर्थयात्रा के बारे में लिखता है कि हिंदू जा रहे हैं विनाश के देवता शिव के कामवासना के अंगों की पूजा के लिए।" ISBN 81-85990-60-3
न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे ख्याति प्राप्त समचार पत्र, जो अमरीकी जनमत तैयार करते हैं
न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे ख्याति प्राप्त समचार पत्र, जो अमरीकी जनमत तैयार करते हैं, वे अपने पाठकों को बताते हैं शिव हैं विनाश के देवता और उनके कामवासना के अंगों की पूजा है अमरनाथ तीर्थ यात्रा का मुख्य उद्देश्य।
जरा सोच कर देखिए क्या प्रभाव पड़ता होगा विश्व जनमत पर हिंदू धर्म के बारे में।
कब तक इस भ्रम में जीयेंगे कि हिंदू धर्म की क्या साख है सारे विश्व में
आप में से अनेक हैं जो फूले नहीं समाते जब देखते हैं मुट्ठी भर गोरी चमड़ी वालों को हिंदू धर्म अपनाते। आप इसी खुशफ़हमी में जीते हैं कि देखो हिंदू धर्म की क्या साख है सारे विश्व में, जो इन गोरी चमड़ी वालों को भी प्रेरित करती है हिंदू धर्म को अपनाने।
कुछ तो यहाँ तक छाप देते हैं कि आज सारा विश्व हिंदू धर्म की महत्ता को मानता है पर हमारे अपने हिंदू उस महत्ता को नहीं समझते। ये अति ज्ञानी लोग उन मुट्ठी भर गोरी चमड़ी वालों को सारे विश्व का प्रतिनिधि मान बैठते हैं।
क्या ऐसा नहीं लगता कि आप अपनी ही नज़रों में इतना गिर चुके हैं कि कोई जरा सा आपकी पीठ थपथपाता और आप फूल कर कुप्पा बन जाते हैं।
आपने खो दी अपनी शिक्षा, अपनी संस्कृति, अपनी पहचान
यही तो चाहा था उस टीबी मॅकॉले ने जो 'टी-बी' की तरह घुन लगा गया हमारे स्वाभिमान को, जब वह लेकर आया ईसाई मिशनरियों की बटालियन सन 1835 में, हमें ईसाई-अँग्रेज़ी शिक्षा पद्धति के साँचे में ढालने के उद्देश्य से।
वह तो सफल हो गया अपने उद्देश्य में और उसका मूल्य चुकाया आपने। आपने खो दी अपनी शिक्षा, अपनी संस्कृति, अपनी पहचान।
उनके शब्दों में शिव नशे में धुत्त गाँव-गाँव में नंगा घूमता है, शिव मंदिरों में पाओगे एक खड़ा लंड जो है शिव की निरंकुश कामुकता का प्रतीक, शिव की पत्नि 'शक्ति' मद्यपान, व्यभिचार, लाम्पट्य, मंदिरों में वेश्यावृत्ति को प्रोत्साहित करती है, 'काली' दुष्ट, डरावनी, ख़ून की प्यासी
क्या ये रक्तबीज जैसे किसी असुर की ही संतानें हैं?
माँ काली ने रक्तबीज नामक असुर का संहार किया था, जिसके खून का एक कतरा धरती पर गिरने से एक और वैसा ही असुर पैदा हो जाता था। अतः स्वाभविक है कि कोई भी ऐसा असुर माँ काली को श्रद्धा की दृष्टि से नहीं देखेगा। ईसाई भी माँ काली को श्रद्धा की दृष्टि से नहीं देखते। क्या इसका मतलब यह हुआ कि ये ईसाई भी उसी रक्तबीज जैसे किसी असुर की ही संतानें हैं?
प्रतिदिन पैंतीस हज़ार लोगों के मन में हिंदू धर्म के प्रति कैसा विष बोया जाता है
आज इंटरनेट का बोलबाला है। विश्व के कोने कोने तक अपनी बात पहुँचाने का यह सबसे सस्ता एवं द्रुतगामी माध्यम है। वेब साइट पर एक काउंटर होता है। यह काउंटर गिनता रहता है कितने लोग अब तक इस साइट पर आए हैं। जब भी कोई व्यक्ति विश्व के किसी भी कोने से कंप्यूटर के द्वारा उस साइट पर जाता है तो तत्काल काउंटर उसे रेकॉर्ड कर लेता है। जब मैं गया था तो काउंटर ने 71,11,525 दिखाया। यह कोई साल भर पहले की बात है, 14 फ़रवरी 2005। डॉ जेरोमे का दावा है कि इस साइट को विश्व भर से पैंतीस हज़ार लोग प्रतिदिन देखते हैं। अब सुनिए उनकी जबानी हिंदू धर्म की कहानी। http://religion-cults.com/Eastern/Hinduism/hindu11.htm
भगवान शिव एवं माँ शक्ति की आज यह छवि प्रस्तुत की जाती है
"हिन्दू धर्म है जमघट विभिन्न पंथों का जिसे कहा जा सकता है धार्मिक अराजकता का ज्वलंत उदाहरण। शिव उनमें से सबसे अधिक लोकप्रिय है। उसके सबसे अधिक भक्त मिलेंगे आपको। नटराज के रूप में वह चार हाथों के साथ नाचता है। चारों ओर नंगा घूमता है गाँव गाँव में, नंदी नामक एक सफ़ेद साँड़ के पीठ पर चढ़ कर। नशे में धुत्त, भूखे रहने और अपने शरीर को विकृत करने की शिक्षा देता वह। भैरव के रूप में अपने पिता की हत्या करने वाला, अपने बाप की खोपड़ी को एक कटोरे के रूप में प्रयोग करने वाला है वह। अर्धनारीश्वर के रूप में स्त्री व पुरुष के काम वासना की छवि है वह। उसके मंदिरों में सदा पाओगे एक बड़ा लिंगपुरुष, रूढ़ शैली का एक खड़ा लंड जो है शिव की निरंकुश कामुकता का प्रतीक (Erect Penis symbolizing his rampant Sexuality)
शिव की पत्नियाँ बड़ी लोकप्रिय हैं। शक्ति रहस्यानुष्ठान, मद्यपान-उत्सव, व्यभिचार, लाम्पट्य, मंदिरों में वेश्यावृत्ति एवं बलि देने की प्रथा को प्रोत्साहित करती है। शक्ति ने आरम्भ किया सती प्रथा का जिसमें विधवा आग में कूद जाती है अपने पति की चिता में। शक्ति काली के रूप में दुष्ट, डरावनी और ख़ून की प्यासी और सबसे अधिक लोकप्रिय है। वह खड़ी होती है एक छिन्न-मस्तक शरीर के ऊपर, गले में मनुष्यों के कटे सरों की माला डाले। ख़बरों के अनुसार प्रति वर्ष सौ व्यक्तियों का ख़ून किया जाता है, बलि के लिए, भारतवर्ष में काली के सम्मान में। हिंदू धर्म के जंगल में न घुसो, निकल भागो इस जंगल से जब यह तुम्हारे बस में हो।" http://religion-cults.com/Eastern/Hinduism/hindu11.htm
अनुवाद करते समय मैंने लंड जैसे अशिष्ट शब्द का 'चयन' क्यों किया?
आप पूछेंगे कि मैंने अनुवाद करते समय लंड जैसे असभ्य शब्द का प्रयोग क्यों किया जब कि मेरे पास लिंग एवं जननेन्द्रिय जैसे सभ्य शब्द थे। यहाँ मैं अनुवादक की भूमिका निभा रहा हूँ। मेरा कर्तव्य है मूल लेखक की वास्तविक भावनाओं को पाठक के सामने लाना, न कि उन्हें पाठक से छुपाना। मुझसे इस कलाकारी की आशा न करें कि मैं मूल लेखक की अश्लील भावना को श्लीलता का जामा पहना कर आपके समक्ष प्रस्तुत करूँगा।
उस ईसाई धर्माध्यक्ष ने क्या सोच कर अपने अंग्रेजी मूल में erect penis शब्द का 'चयन' किया, genital का क्यों नहीं ?
आप स्वयं सोच कर देखें कि इस ईसाई धर्माध्यक्ष ने genital (जननेन्द्रिय) शब्द का प्रयोग नहीं किया। उसने erect (खड़ा, तना हुआ) विशेषण का प्रयोग किया है genital के साथ नहीं बल्कि penis के साथ। जब penis erect होता है तब पुरुष के मन में कामुकता की भावना प्रबल होती है। इसी बात पर जोर देते हुए ईसाई धर्माध्यक्ष हमारे भगवान शिव की rampant (निरंकुश) sexuality (कामुकता) का वर्णन करते हुए उन्हें काम वासना की छवि बताया। अतः erect penis की बात करते हुए उनकी भावना स्पष्टतः कामुकता से उद्वेलित खड़े लंड की ओर संकेत करती है, किसी जननेन्द्रिय (सृजन प्रक्रिया का एक अंग) अथवा किसी लिंग (gender जैसे स्त्रीलिंग या पुलिंग) की नहीं।
दो हिंदू संस्थाओं के द्वारा किये गए घोर आपत्ति के बावज़ूद उस ईसाई धर्म गुरु ने अपने वेबसाइट पर कोई भी परिवर्तन करना स्वीकार नहीं किया
भगवान शिव ने कामुकता पर पूर्ण विजय प्राप्त कर ली थी। उसी भगवान शिव के बारे में, अश्लील भावना का प्रदर्शन करते हुए, उस प्रख्यात ईसाई धर्माध्यक्ष ने अपने शब्दों का चयन किया था बहुत ही सोच-समझ कर। अमरीका में दो हिंदू संस्थाओं के बारे में मैं जानता हूँ जिन्होंने घोर आपत्ति की, भगवान शिव के लिए erect penis एवं rampant sexuality जैसे शब्दों के प्रयोग पर। पर उस ईसाई धर्म गुरु ने अपने वेबसाइट पर कोई भी परिवर्तन करना स्वीकार नहीं किया। ऐसा क्यों? विवरण - http://www.IndiaCause.com
अब तक एक करोड़ लोग देख चुके होंगे उस वेबसाइट को - क्या प्रभाव पड़ता होगा सारे विश्व पर हिंदू धर्म के प्रति?
- हिंदू धर्म के प्रति अपनी वह कुत्सित भावना, उस ईसाई धर्माध्यक्ष ने, विश्व भर के लाखों लोगों के मन में भरी।
- क्या प्रभाव पड़ता होगा सारे विश्व पर जब पैंतीस हज़ार लोग प्रतिदिन पढ़ते होंगे इसको?
आपके सामने आपके धर्म का बलात्कार हो रहा है और आपकी आत्मा को यह स्वीकार भी है
- यह सब जानकर भी यदि आपका खून नहीं खौलता तो जान लीजिए कि आप का खून ठंडा पड़ चुका है और आप स्वाभिमान के साथ जीने के हकदार नहीं हैं।
- जरा सोचकर देखिए जैसे आपकी माँ अपने दूध से आपके शरीर को सींचती है ठीक उसी प्रकार आपका धर्म आपकी आत्मा को सींचता है।
- कल्पना कीजिए, आपके सामने आपकी माँ का बलात्कार हो रहा है। उसी प्रकार आज आपके धर्म का बलात्कार हो रहा है।
- आपकी आत्मा को यह स्वीकार भी है।
आपकी सोच - हमारा हिंदू धर्म विश्व भर में कितने आदर के साथ देखा जाता है
- और आप हैं कि मुट्ठी भर सफेद चमड़ी वालों को हिंदू धर्म अपनाते देख, फूले नहीं समाते।
- यह सोच कर खुश हो लेते हैं कि हमारा हिंदू धर्म विश्व भर में कितने आदर के साथ देखा जाता है।
- अब तो कम से कम अपने मन को बहलाना बंद कीजिए।
ईसाई ऐसा क्यों करते है? क्या छुपा है उनकी शिक्षा एवं उनके चरित्र में?
- मैं स्वयं अनगिनत बार भगवान शिव शंकर के द्वार पर गया पर मुझे तो वहाँ कभी वह न दिखा जो ईसाइयोंको दिखा। मेरे मन में वैसी भावना कभी जगी तक नहीं।
- उस भावना के अस्तित्व को मैंने तभी जाना जब उसके बारे में पुस्तकों में पढ़ा या दूसरों से सुना और फिर भी मेरे मन में वह भावना कभी घर न कर पायी।
- ऐसा क्या है उन ईसाइयों की सोच में जो उन्हें सदा खड़ा लंड ही दिखाई देता है? आगे चलकर इसी रहस्य को समझने की चेष्टा करेंगे।
यह समझने की भूल न करें कि ये सारे हथकण्डे केवल ईसाई धर्मगुरुओं और चंद कलाकारों के ही हैं - बाकी साधारण ईसाई दूध के धुले हुए हैं
अप्रैल 2003 में अमेरीकन ईगल आउटफिटर्स (American Eagle Outfitters) नामक कम्पनी ने इन चप्पलों को 12.50 डॉलर (500 रुपये उन दिनों) में बेचना शुरू किया जिन पर हमारे पूजनीय श्री गणेश की मूर्ति अंकित थी। इस कंपनी के लगभग 750 स्टोर्स मिलेंगे आपको, अमरीका एवं कैनेडा में।
- यदि साधारण ईसाई दूध के धुले भलेमानुस थे, तो उन्हें इन चप्पलों का बहिष्कार करना चाहिये था, जो उन्होंने नहीं किया, बल्कि उन्हे बड़े चाव के साथ खरीदा और पहना, ताकि वे हमारे परम पूज्य श्री गणेश को अपने पैरों तले प्रतिदिन रौंद सकें।
27-4-2003 को अमरीका की IndiaCause नामक हिंदू संस्था ने इस पर आपत्ति करते हुए कम्पनी को लिखा। 29-4-2003 को कम्पनी के वाइस-प्रेसिडेन्ट नील बुलमैन जूनियर ने क्षमायाचना करते हुए IndiaCause को फैक्स भेजा इस आश्वासन के साथ कि वे उन सारी चप्पलों को अपनी दुकानों से वापस मंगा लेंगे। विवरण - www.indiacause.com इस संस्था ने चेष्टा की। इस चेष्टा का फल भी मिला।
सिआटल (Seattle अमरीका) की एक कंपनी सिटिन प्रेटी (Sittin Pretty) कोमोड (toilet seat) बेचनी शुरू की श्री गणेश एवं माँ काली की तस्वीरों के साथ।
- अपने चहेते ईसा मसीह की तस्वीर उन्होंने वहाँ न दी।
- पैगम्बर मुहम्मद की तस्वीर देने की बात सोच कर वे अपने ही पैंट में टट्टी कर देते, हलाल कर दिये जाने के डर से।
- यदि साधारण ईसाई दूध के धुले भलेमानुस थे, तो उन्हें इन टट्टी करने के स्थानों का बहिष्कार करना चाहिये था, जो उन्होंने नहीं किया, बल्कि उन्हे बड़े चाव के साथ खरीदा और उनको अपने घरों में लगाया, ताकि वे श्री गणेश व माँ काली के साथ हग सकें।
कई हिंदू संस्थाओं ने इस पर आपत्ति उठाई। हजारों की संख्या मे ईमेल गए, फैक्स एवं टेलीफोन किए गए। कोशिशें ज़ारी रहीं। काफी लम्बा चला यह आन्दोलन। अंत में कंपनी ने इन डिज़ाइनों को बजार से वापस लेना स्वीकार किया। American Hindus against Defamation नामक संस्था इस अभियान में सबसे आगे रही। विवरण - http://www.iVarta.com
सन 2005 - हिंदू देवी-देवताओं की छवि की नुमाइश ईसाई औरतों की बिकनियों पर
"विश्व के चंद सर्वोत्कृष्ट डिज़ाइनरों में से एक हैं रोबेर्टो कावाल्लि जिन्होंने हिंदू देवी देवताओं की छवि बिकनियों के ऊपर छापी." विवरण - Hindustan Times, 20-11-2005, p 10
अब विदेशों में इन चड्डियों को पहन कर गोरी-भूरी-पीली-काली ईसाई औरतें समुद्र तट पर धूप सेंकेंगी, घूमेंगी-फिरेंगी, खेलेंगी-कूदेंगी, खिलखिलायेंगी और मर्दों का ध्यान आकर्षित करेंगी।
साथ ही हिंदू देवी-देवताओं की छवि की नुमाइश करेंगी अपने शरीर के उन अंगों पर जिनसे वे पेशाब एवं टट्टी करती हैं (चड्डियाँ इन्हीं अंगों को ढाँकती हैं, उनके शरीर का बाकी हिस्सा तो प्रदर्शन के लिए होता है, यहाँ तक कि उनके वक्षस्थल भी — प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार गोवा, वेनिस, ऑन्टैरियो के समुद्र-तट)।
यही है अधिकांशतः ईसाइयों की नज़रों में हिंदू धर्म का स्थान।
हमारे देश के धर्मान्तरित ईसाई तो विदेशियों से भी एक कदम आगे - गाँव में जिस शिवलिंग की नियमित पूजा होती थी उसी पर ये ईसाई टट्टी कर जाते हैं - उस ईसाई धर्मगुरु की शह पर जिसने उनका धर्मान्तरण किया
- 13-8-2003 ग्राम कोविलनचेरी जिला कांची प्रदेश तमिलनाडु - यह केवल अमरीका की बात ही नहीं, हमारे अपने भारतवर्ष में भी ऐसा होता है पर आपकी समाचार एजेंसियाँ इन्हें आपसे छुपा जाती हैं।
- अंतर केवल इतना है कि यहाँ आज माँ काली की फ़ोटो के साथ नहीं, बल्कि उससे एक कदम बढ़ कर, साक्षात शिवलिंग के ऊपर टट्टी करते हैं, उसे कोमोड मान कर। वह शिवलिंग जिसकी, तब भी गाँव में, नियमित पूजा होती थी। सम्पूर्ण विवरण - हिंदू वॉइस (अँग्रेजी संस्करण), रिपोर्ट एस वी बादरी, सितम्बर 2003, पृ 40-41
मेरे बोलों में शब्दों की सुंदरता न खोजें
- जो जैसा है, उसे वैसा ही पेश करता हूँ मैं। मेरी बातें आपको बहुत कड़वी लगेंगी। कभी-कभी भाषा आपको सड़क-छाप लगेगी क्योंकि मैं भाषा की सुंदरता के द्वारा उन लोगों के भावों की गंदगी को छुपाने की चेष्टा नहीं करता।
- आपको कठोर शब्दों के माध्यम से ठोकर की आवश्यकता है। बहुत समय से आप उस काल्पनिक दुनिया में बसते रहे हैं, जहाँ आप अपनी पीठ स्वयं ही थपथपा लिया करते थे। अब अपने-आप से पूछिए कि कब तक आप अपने-आप को भुलावे में रखना चाहेंगे?
कब तक आप सत्य से भागते फिरेंगे?
- आपको सदा से सिखाया जाता रहा है कि अपने गरेबान में झाँक कर देखो (अपने अंदर झाँक कर देखो)। और आपने भी सदा अपने ही गरेबान में झाँकना सीखा है।
- इस प्रक्रिया में आपने इतनी महारथ हासिल कर ली है कि आप अपनी ही नज़रों में बहुत छोटे बन गए हैं। अपने हिंदुओं में ही सर्वदा दोष खोजने के आदी बन चुके हैं।
- यह उन भगोड़ों की विशेषता है जो समस्या के समाधान हेतु 'समस्या को पैदा'
करने वालों के विरुद्ध खड़े होने का सत्साहस नहीं रखते।
क्या आपने कभी दूसरों के गरेबान में भी झाँक कर देखने की चेष्टा की है? इसलिए नहीं कि आप उनकी गलतियाँ निकालें। - बल्कि इसलिए कि वे सदा से आपको छोटा दिखाते आये हैं। एक बार उनकी खामियों की ओर भी नजर डाल कर देखें, केवल अपनों को हीन मानने के बजाय!
क्या कभी आपने सोचा है कि स्वाभिमान जैसी भी कोई चीज होती है?
- क्या आपने जाना है कि आत्मरक्षा का हमारी जीवन प्रक्रिया में कोई महत्व होता है? आत्मरक्षा की बात करें तो केवल यह न सोचिए--आपके शरीर पर हमला हो रहा है।
- हमला आपकी आत्मा पर भी हो सकता है। हमला आपकी आस्थाओं पर भी हो सकता है।
- हमले का उद्देश्य आपकी सोच को एक नया जामा पहनाने का भी हो सकता है। हमला एक षड़यंत्र के रूप में भी हो सकता है जिसके पीछे एक निहित स्वार्थ हो।
- और वह यह कि आपको अपनी जड़ों से उखाड़ कर अलग करना। जब आप अपनी जड़ों से ही कट जायेंगे तो आप अपनी पहचान को भी भूल जायेंगे।
क्या यही नहीं हो रहा है आज के युवा वर्ग के साथ?
- ऐसा क्या है ईसाइयों की सोच में, उनकी शिक्षा में, उनके संस्कारों में और उनके छुपे हुए अतीत में, जो उन्हें इस रूप में ढालता है?
- क्या वे ऐसा केवल आज ही कर रहे हैं? नहीं, केवल आज ही नहीं, वे सदा से ही ऐसा करते आए हैं।
- वे सदा से ऐसा क्यों करते आए हैं? ऐसा क्या छुपा है उनके अतीत में? क्या हिंदू धर्म भी उनके साथ ऐसा ही व्यवहार करता है? कभी नहीं।
- वे किस मिट्टी के बनें हैं जो उनमें इतनी घृणा है हमारे प्रति? आइए चलें उनके अतीत में, जिसके आधार पर उनका वर्तमान खड़ा है।
आइये देखिए कुछ झलकियाँ, ईसाई धर्म के सर्वोच्च धर्माध्यक्षों एवं अन्य धर्मगुरुओं के चरित्र की, और फिर स्वयं सोचिए कि जब इनके अपने चरित्र इतने गंदे होंगे, तो उनकी सोच कितनी गंदी होगी, और उन्हें शिवलिंग में एक खड़ा शिश्न नहीं तो और क्या दिखेगा, तथा शक्ति में एक व्यभिचारिणी नही तो और क्या दिखेगी?
"पोप जॉन 13वे उपस्थित हुए महासभा के सामने अपने आचरणों का हिसाब देने। यह सिद्ध हुआ सैंतिस प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों के द्वारा, जिनमें से अधिकांशतः धर्माध्यक्ष एवं पुरोहित थे, कि पोप दोषी थे कुमारीसंभोग के, परस्त्रीगमन के, कौटुम्बिक व्यभिचार के, लौण्डेबाजी के, चोरी के एवं हत्या के। विशाल संख्या में साक्षियों के द्वारा यह भी सिद्ध हुआ कि पोप ने 300 मठवासिनीयों का शील भंग एवं बलात्कार किया।" ISBN 81-85990-46-8 p 97fn [quoting Dwight, Roman Republic in 1849 p 115 and The Priest, Woman and Confessional p 268] अधिक विवरण के लिए पढ़ें पुस्तक 12, 10, 08, 04
इन नराधमों के अनुयायी भी ऐसे ही नराधम बनेंगे
ऐसे नराधम जब किसी धर्म के सर्वोच्च रक्षक होंगे तो उनका अनुकरण करने वाले धर्माधिकारी कितने बदनीयत होंगे। आइये देखें चन्द उदाहरण
"1274 में लीग के धर्माध्यक्ष हेनरी तृतीय ने (न्यायालय में) बयान दिया कि उनकी पैंसठ अवैध संतानें थीं। इसी धर्माध्यक्ष ने जनसमुदाय के महाभोज में अपनी शेखी बघारते हुए कहा कि बाईस महीने के बीच उनसे चौदह बच्चे पैदा हुए।" ISBN 81-85990-46-8 p 97fn [quoting Lecky, History of European Morals p 350]
"इस बात की खुलकर पुष्टि की जाती है कि एक लाख स्त्रियों को इग्लैंड में पुरोहित-वर्ग द्वारा दुराचारी-लंपट बनाय गया।" ISBN 81-85990-46-8 p 97fn [quoting Intellectual Development of Europe p 498]
- ऐसे दुश्चरित्र व्यक्तियों को शिवलिंग में भगवान का वास न दिखेगा क्योंकि उनका ध्यान तो सदा केंद्रित होता है अपने शिश्न पर।
- उन्हें शक्ति में व्यभिचारिणी ही दिखेगी क्योंकि स्त्री उनके लिए माता नहीं बल्कि उनकी यौन-तृष्णा की निवृत्ति का साधन-मात्र है।
- ऐसे दुश्चरित्र व्यक्ति जब धर्माधिकारी होंगे तो उनके अनुयायी कैसे होंगे यह आप स्वयं सोचें।
इन दोगलों की संतानें भी दोगली ही बनेंगी
"रोम में पैदा होने वाले दोग़ले बच्चों की संख्या इतनी विशाल होती है कि उनको रखने के लिए प्रकाण्ड मठों की व्यवस्था करनी पड़ती है, जहाँ उन्हें पाल-पोस कर बड़ा किया जाता है एवं पोप उनका पिता कहलाता है। जब रोम में किसी महान शोभायात्रा का आयोजन किया जाता है तो ये सभी दोगले बच्चे पोप के आगे-आगे चलते हैं।" ISBN 81-85990-46-8 p 97fn [quoting Familiar Discourses 383]
- इन्हीं दोगलो में से कोई फिर पोप बनेगा और फिर ढेरों दोगले पैदा करेगा।
- इन दोगलों की संतानों की सोच दोगली होगी, चरित्र दोगला होगा, संस्कार दोगले होंगे, संस्कृति दोगली होगी, इन दोगलों की जात में कुछ भी शुद्ध न होगा, कुछ भी पवित्र न होगा।
- इन्हीं दोगलो में से कोई फ़ादर बनेगा और स्कूल चलायेगा, वहाँ से जो बच्चे पढ़कर निकलेंगे वे भी दोगली संस्कृति की उपज होंगी।
- उनकी भी सोच दोगली होगी, जबान दोगली होगी, धर्म दोगला होगा, शुद्ध और पवित्र कुछ भी न होगा।
गले तक डूबे ये 'यौनाचारी' जिन्हें हमारे पूर्वजों ने 'यवन' का नाम दिया था
"पोप ग्रेगरी के अविवाहित जीवन की पुष्टि करने के पश्चात उन्हें एक मछली तालाब में छः हजार नवजात शिशुओं के सर मिले जिसके कारण उन्हें पुनः पुरोहितों के विवाह का अनुमोदन करना पड़ा।" ISBN 81-85990-46-8 Ibid.
"यह मछली तालाब उस (महिला) मठ के पास था जिसमें 'ईसा मसीह के नववधुओं' का निवास था।" ISBN 81-85990-46-8 preface
- ये धर्म के रक्षक यौन-लिप्सा में इस कदर डूबे कि उन्होंने समाज को अपनी यौनाकांक्षाओं की तृप्ति का अखाड़ा बना दिया।
- उनकी इज्जत करते-करते हम भी उनकी तरह यवन बनते जा रहे हैं।
सर्वोच्च धर्माधिकारी पोप भ्रष्टाचार का प्रतीक बना और अपने अनुयायियों को भ्रष्टाचार की सीख दी
"वह स्पेन से लेकर आया इटली में, चरित्रहीन सगे-संबंधियों का एक झुण्ड, जिन्होंने फैलाया भ्रष्टाचार एवं चरित्रहीनता सभी दिशाओं में, एवं खोला घिनौनेपन का एक ऐसा पन्ना इतिहास में जिसकी समता नहीं किसी भी धर्म के उच्च अधिकारियों के जीवन में।" ISBN 81-85990-21-2 p79fn [quoting Joseph McCabe, A Testament of christian Civilization]
- जब सर्वोच्च धर्माधिकारी पोप ही भ्रष्टाचार का सरदार होगा तो उसका समाज भ्रष्टाचारियों का अड्डा होगा।
- उनकी संगत में हमने इतनी पीढ़ियाँ बिता दीं कि आज हम उनके जैसे ही बन गये हैं।
पुत्री के साथ सम्भोग और पुत्र के साथ वेश्यालयों में जाना, अपने अनुगतों को विष देकर उनकी सम्पत्ति हथियाना - यह सब कोई सीखे तो ईसाई धर्म के सर्वोच्च धर्माधिकारी पोप से
"उसने दुर्दम्य शक्ति-राजनीति का खेल खेला, चर्च के विशेषाधिकारों को खरीदा और बेचा। पोप के महल में होने वाली उछछृंखल पार्टियाँ बहुत प्रसिद्ध थीं जहाँ अनियंत्रित रूप से शराब बहता था और अंधाधुंध यौनाचार होता था। इस पोप ने अपनी ही पुत्री के साथ सम्भोग किया (यौन संबध रखे)। वह अपने पुत्र के साथ वेश्यालयों में जाता रहा। उसने अपने कार्डिनलों को विष देकर मारा उनकी धन-सम्पत्ति हड़पने के लिए। अंत में उसकी अपनी मृत्यु भी विष दिये जाने के कारण ही हुई।" ISBN 81-85990-21-2 p79
कार्डिनल पोप के द्वारा नियुक्त किए जाते हैं और उन्हीं में से एक कार्डिनल अगला पोप बनता है, वर्तमान पोप के मरनोपरान्त।
- पोप ईसाई धर्म का सर्वोच्च धर्मगुरु हुआ करता है।
- उसका अपना चरित्र उसके अनुयायियों को उसी दिशा में प्रेरित करता है।
अपने आपको भुलावे में न रखें कि यह सब सूदूर अतीत की बाते हैं कारण उनके 'कल' और 'आज' में कोई बदलाव नहीं आया
"प्रायः 800 व्यक्तियों ने कहा कि जब वे छोटे थे तब बॉस्टन के महाधर्मप्रान्त में 1940 से उनका यौन दुरुपयोग किया गया था। बॉस्टन चर्च के विरुद्ध इस प्रकार के आरोपों के इस पहले राजकीय लेखे में मैसाचुसेट्ट्स के महान्यायवादी टॉम रेली ने कहा कि इस महाधर्मप्रान्त में पुरोहित-वर्ग द्वारा यौन-दुरुपयोग का इतिहास आश्चर्यजनक है। बॉस्टन में होते रहे यौन दुरुपयोग के अपयश की प्रतिध्वनि समस्त विश्व के कैथोलिक धर्मप्रांतों में सुनाई देने लगी एवं विभिन्न दिशाओं से ऐसे आरोप सामने आने लगे।" The Free Press Journal, Mumbai, 25-7-2003
"रोमन कैथोलिक धर्मगुरुओं ने रिपोर्ट दी कि पुरोहितों द्वारा यौन दुरुपयोगों के 1,092 नए आरोप सामने आये हैं। डॉ मैक्चेस्ने ने कहा कि 1950 से चर्च का खर्च 800 मिलियन डॉलर अर्थात 34 अरब 40 करोड़ रुपये से अधिक हो चुका है। केवल पिछले वर्ष ही इनके निपटारे, रोगोपचार एवं वकीलों की फ़ीस में 139.6 मिलियन डॉलर अर्थात 6 अरब रुपये खर्च हुए। पिछले वर्ष न्यू यॉर्क के जॉन जे कॉलेज ऑफ़ क्रिमिनल जस्टिस द्वारा किए गए एक विश्लेषण से पता चला कि 1950 से 2002 के बीच 10,667 नाबालिग ईसाई धर्मगुरुओं के द्वारा यौन दुरुपयोग के शिकार हुए। डॉ मैक्चेस्ने ने कहा कि वास्तविक संख्या सम्भवतः कभी न जानी जा सकेगी क्योंकि अनेक व्यक्ति (इस प्रकार की आपबीती बताने) सामने नहीं आते।" The Times of India, Mumbai, 20-2-2005, p 10
ईसाई राष्ट्रों में यौनाचार को बड़ी गरिमा प्रदान की जाती है
सम्भवतः इसी कारण ईसाई राष्ट्रों में यौनाचार को बड़ी गरिमा प्रदान की जाती है। इन्हीं असाधारण चरित्रों की झलकियाँ आप देखते हैं आज अमरीका के जन-जीवन में।
- उसे आधुनिकता का प्रभाव समझने की भूल न करें।
- अमेरिका एक ईसाई राष्ट्र है।
(1) अमरीकी जनता में 84% ईसाई हैं (2) अमरीकी सेना में जो भर्ती होते हैं उनमें 98% ईसाई हैं (विवरण - वॉशिन्गटन पोस्ट, पुनरुद्धृत हिंदू वॉयस)
इन ईसाइयों ने हम हिन्दुओं को भी अपने ही साँचे में ढाल दिया और उनकी संगत में हम उनके जैसे ही बदजात बन गये
हमारे देश में भी, पिछले छः पीढ़ियों से ईसाई-अँग्रेज़ी शिक्षा पद्धति के प्रभाव में, हम हिंदुओं की सोच उसी साँचे में ढल चुकी है। आज हमारे समाचारपत्र, सिनेमा एवं टेलीविज़न यौन प्रदर्शन को बड़ा महत्व देते हैं।
सदियाँ बीत गईं पर वे तो न बदले
सदियाँ बीत गईं पर उनका चरित्र नहीं बदला। ये सारे उदाहरण केवल अपवाद मात्र नहीं हैं। सैकड़ों उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं पर मेरा उद्देश्य आपका मनोरंजन करना नहीं, अपितु आपको सावधान करना है।
- आप चाहेंगे समझना तो ये थोड़े-से उदाहरण ही पर्याप्त होंगे।
- न समझना चाहेंगे, अपितु केवल वाद-विवाद कर संतुष्ट होना पसंद करेंगे, तो सैकड़ों उदाहरण भी पर्याप्त न होंगे।
हमारे इतिहास को फिर से लिखा उन्होंने अपने ही रंग में रंग कर
- ऐसी ही बातें आपने बहुधा पढ़ी होंगी (अतीत के) हिंदू पुरोहित-वर्ग के बारे में।
- आपने कभी इस बात की परीक्षा करने की चेष्टा न की होगी कि उन सब का आधार कहाँ है।
- आप ऐसी ही बातें, बार-बार पढ़ते रहे होंगे, कहानियों में एवं उन ऐतिहासिक उपन्यासों में जिनमें लेखक की कल्पना अधिक होती है और ऐतिहासिक सत्य कम।
- जब एक ही बात, आपके सामने, बार-बार दोहरायी जाती है, भिन्न-भिन्न माध्यमों के द्वारा, तो आप, स्वाभाविक है कि, उन्हें सत्य मान कर चलते हैं।
- कहीं ऐसा तो नहीं कि एक स्थान से प्रारम्भ होकर ये बातें, अनेक माध्यमों के द्वारा, घूमती हुई, आप के समक्ष बार-बार आती रहती हैं?
- कहीं ऐसा तो नहीं कि जो बात आपके सामने, आपके इतिहास के रूप में लायी जाती है, वह आपका इतिहास नहीं, बल्कि किसी और का इतिहास है, जिसे आपके इतिहास का जामा पहनाया गया है?
पिछले छः पीढ़ियों के दौरान आपका इतिहास आपके नियंत्रण में रहा ही कहाँ?
- आप तो गुलाम थे। आपका इतिहास तो आपका मालिक लिखा करता था। उसने तो वही लिखा जिससे उसका स्वार्थ सिद्ध होता।
- उसने तो आपको वही इतिहास पढ़ाया जिससे आपको अपने इतिहास पर गर्व करने जैसा कुछ न मिला।
- आपने उनकी नज़रों से अपने पुरखों को देखना और पहचानना सीखा।
जब आपके ये गंदी सोच और गंदे चरित्र वाले मालिक, आपका इतिहास लिखने बैठे होंगे, तो क्या उन्हें कहीं दूर जाने की आवश्यकता हुई होगी?
- क्या उनके लिए केवल इतना ही पर्याप्त न रहा होगा कि वे केवल अपने ही इतिहास में झाँक कर देखते और आपका इतिहास उसी रंग में रंग देते?
- बाद में जब आप उस रंगीन इतिहास को पढ़ते होंगे तो उसे ही अपना अतीत जानते होंगे।
- पीढ़ी दर पीढ़ी आप उसी इतिहास को अपना इतिहास मानते गए, और अपनी संतानों को भी वही सीख देते गए।
मैं शिक्षा पर ही इतना ज़ोर क्यों देता हूँ
- हम जो कुछ पढ़ते हैं और जो कुछ अपने चारों तरफ़ देखते हैं वे सभी हमारे मनों-मस्तिष्क पर कोई न कोई छाप अवश्य छोड़ जाते हैं।
- शिक्षा चाहे किसी भी प्रकार की हो वह हमारी सोच एवं हमारी भावनाओं को दिशा देती है।
- हमारी सोच एवं हमारी भावनाएँ हमारे आचरण का निर्माण करती हैं।
- जब हिंदू शिक्षा पद्धति हमारी शिक्षा का माध्यम थी तो उसने हमारे चरित्र को एक ढाँचे में ढाला था।
- जब 1835 में ईसाई-अँग्रेज़ी शिक्षा पद्धति हम पर थोप दी गई तो उसने हमें धीरे-धीरे उनके जैसा बना दिया।
- आज का हिंदू, अब वह कल का हिंदू न रहा, जिसका आचरण पवित्र हुआ करता था।
अब तुलना कीजिए इन सब की हमारे पुरातन हिंदू समाज से
"विलासिता, लाम्पट्य, व्यभिचार से रहित होने का यह गुण हिदुओं को श्रेष्ठता प्रदान करता है। आचरण की पवित्रता की दृष्टि से उनकी (हिंदुओं की) श्रेष्ठता हमारे (अँग्रेज़ों के) अहंकार की संतुष्टि नहीं करता।" ISBN 0-14-100437-1 [quoting Elphinstone's History of India, ed. Cowel]
एलफिन्सट्न मुम्बई प्रेसीडेन्सी के प्रथम गवर्नर थे। मुम्बई में उनके नाम पर एलफिन्सटन कॉलेज एवं एलफिन्सटन रोड नामक रेलवे स्टेशन आज भी है।
- उन्होंने यहाँ के लोगों के बीच में रह कर देखा था कि अँग्रेज़ी शिक्षा लादे जाने से पहले हम हिंदुओं का चरित्र क्या हुआ करता था।
- भारत के इतिहास पर अपनी पुस्तक में वे लिखते हैं -
- हम अंग्रेज अपने आपको हिंदुओं से श्रेष्ठ समझने का दम भरते हैं, पर हमारा यह अहंकार बेमानी है।
- उनके आचरण की पवित्रता से हम अपनी तुलना नहीं कर सकते।
- वे हमसे कहीं अधिक श्रेष्ठ हैं।
- विलासिता से रहित उनका आचरण, लाम्पट्य और व्यभिचार से रहित उनका आचरण, उन्हें हमसे अधिक श्रेष्ठ बनाता है।
यदि हम हिन्दू अपने पूज्य शिवलिंग में एक कामातुर खड़ा शिश्न देखते, और शिव की पत्नी शक्ति में एक व्यभिचारिणी को देखते, तो क्या हम अपना आचरण विलासिता, लाम्पट्य, व्यभिचार से रहित रख सकते थे?
आप अपने-आप से यह प्रश्न पूछ कर देखें और आपको उत्तर स्वयं ही मिल जायेगा। इसे समझने के लिए न तो आपका बहुत पढ़ा-लिखा होना आवश्यक है, न ही बड़ा विद्वान-बुद्धिमान होना।
तो फिर ईसाइयों को शिवलिंग में एक खड़ा शिश्न, और शिव की पत्नी शक्ति में एक व्यभिचारिणी, ही क्यों दिखती है?
- उनके साथ ऐसा होता है क्योंकि उनका अपना आचरण ही इतना गंदा है, कि उनकी सोच इस गंदगी के घेरे से बाहर निकल कर पवित्रता की ओर जा ही नहीं पाती।
- नाली के कीड़ों को चारों ओर नाली जैसा गंदा ही दिखता है।
- चमड़ी सफेद होने से हृदय स्वच्छ नहीं हो जाता, सोच शुद्ध नहीं हो जाती, नाली का कीड़ा नाली का ही रहता है।
उनका साथ पाकर, हममें से भी अनेक, उनके जैसे, नाली के कीड़े ही बन गये हैं
जब इस पुस्तक का पहला संस्करण प्रकाशित हुआ तो उत्तर-पश्चिम भारतवर्ष के एक स्थान (पंचकूला) से एक फोन आया। ये महाशय किसी 'भारतीय सुराज्य मंच' के 'अध्यक्ष' हुआ करते थे। यह लगभग दो वर्ष पहले की बात है। उनके पास मेरी यह पुस्तक घूमते-घामते पहुँची होगी जैसा कि मेरी पुस्तकों के साथ अक्सर होता है, एक प्रति दस हाथों से गुजरती है।
उन्होंने इतनी दूर से मुझे फोन किया यह जताने के लिए कि जो ये ईसाई कहते हैं शिवलिंग के बारे में, उसमें गलत क्या है। उन्होंने मुझे सलाह दी कि मैं शिव-पुराण पढ़ूँ।
- अब मेरी समस्या यह है कि इन पोथी-पढ़े पंडितों के प्रति मेरे मन में कोई विशेष श्रद्धा नहीं रही है क्योंकि इनका सारा ज्ञान उधार का होता है, उन्होंने स्वयं "किसी चीज की व्यक्तिगत अनुभूति से" कुछ न सीखा होता है।
- उनकी बात सुनकर मेरे मन में एक प्रश्न उठा जो मैंने उनसे पूछा। सदियों जो करोड़ों-अरबों स्त्री-पुरुष शिव मंदिर में पूजा के लिए जाते हैं तो उनके मन में क्या भाव होता है? क्या वे एक कामान्ध खड़े शिश्न की पूजा करते हैं या फिर भगवान शिव की?
- इसके उत्तर में उन्होंने मुझसे कहा कि उन व्यक्तियों के मन में कोई भाव होता ही नहीं है। अर्थात वे एक भावना-रहित रोबोट (मशीन) की भाँति पूजा के लिए शिव मंदिर में जाते हैं।
- उनकी यह बात सुनकर मुझे लगा शायद वह अपनी ही बात कर रहे थे - एक ऐसा व्यक्ति जो पोथी पढ़ कर एक भावना-रहित मशीन जैसा हो गया है।
- मैं सोचता रहा कि यदि ऐसे व्यक्ति भारत में 'सुराज्य' लाने की जिम्मेदारी लेंगे तो वह भारत कैसा होगा?
जब तक हमने अपने आपको ईसाई-अँग्रेज़ों से दूर रखा, तब तक हमने अपने आचरण की पवित्रता को बनाए रखा
- जैसे-जैसे हम इनके क़रीब आते गए तो हमारी पवित्रता हमसे दूर होती गई।
- छः पीढ़ियों की संगत के पश्चात, आज हम उनके इतने निकट आ गए हैं, कि हमने अपनी आचरण की पवित्रता को पूरी तरह से खो दिया है।
- इसीलिए हमारे गुरुजन कहा करते थे कि बुरी संगत का असर बुरा ही होता है और ऐसी संगत से बचो1
- आज तो हम इस प्रकार से घुलमिल गए हैं उनसे, कि उनके आचरण को हम उचित, एवं हमारे अपने पुरातन आचरणों को अनुचित समझने लगे हैं।
यह क्यों आवश्यक है कि हम जानें कि उनके बिना हम क्या थे और उनकी संगत में हम क्या बन गए
- हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि ये पोप और अन्य ईसाई धर्माध्यक्ष अपने घरों में क्या करते हैं।
- पर उन्होंने हमारे घर में जबरन घुसकर हमें और हमारे बच्चों को अपने जैसा गंदा बनाना शुरू किया।
- इसलिए हमारा जानना आवश्यक है कि हम उनके बिना क्या थे और उनकी संगत
में क्या बन गए।
सात फेरों का दृष्टांत
- हिंदू विवाह होता है सात फेरे पूरे कर।
- साई-अँग्रेज़ी शिक्षा पद्धति का आरंभ हुआ सन 1835 में।
- 30 वर्ष में एक नई पीढ़ी तैयार हो जाती है।
- 1835 से 2005 तक कोई 170 वर्ष हुए।
- 10 वर्ष और हैं 180 वर्ष पूरे होने में।
- 180 वर्ष का अर्थ होगा 6 पीढ़ीयाँ जिसके अंतिम चरण की ओर बढ़ रहे हैं
हम तेजी से।
- उसके पश्चात एक और पीढ़ी के गुजरने की देर रहेगी।
- तब होंगीं सात पीढ़ीयाँ पूरी।
- ईसाई शिक्षा पद्धति की सातवीं पीढ़ी।
- तब नाम के हम हिंदू रहेंगे, सोच हमारी ईसाई होगी, चरित्र हमारा ईसाई
होगा।
और हमारे टी वी गुरु क्या कहते हैं?
- प्रत्येक सुबह हमारे टीवी-गुरु यह कहते सुनाई देते हैं कि हमें अंतर्मुखी
होकर ईश्वर की साधना में लीन होना चाहिए।
- और हमें अपने दोषों के प्रति सतत जागरूक रहकर उन्हें दूर करते रहने
की चेष्टा में सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए।
- क्या उन्हें दिखाई नहीं देता कि हमारे धर्म पर कैसे आघात हो रहे हैं?
- या फिर वे देख कर भी उसे देखना नहीं चाहते?
- उनका ऐसा ज्ञान और ऐसा प्रवचन किस काम का जो हमें आज की प्राथमिकता के प्रति जागरूक नहीं कराता?
वे जो कहते हैं, कि इस दुनिया में अच्छी और बुरी दोनों चीजें है - अच्छी को ग्रहण करो, बुरे की ओर से मुँह फेर लो
आप में से कुछ बड़े दरिया-दिल होतें हैं। उनका कहना और सोचना है कि जो बुरा करते और कहते हैं, उन्हें करने दो, उन्हें उनके कर्मों का फल स्वयं मिलेगा, हम क्यों उसकी चिंता करें? हमें अपनी दृष्टि और सोच को अच्छी बातों कि ओर लगाना चाहिए।
समाज एक समष्टि है, जहाँ अनेक प्रकार के लोग रहते हैं —
- जो बुरी बातें बेधड़क कहते हैं, और जो उसे अनदेखा करते हैं, दोनों दोषी हैं। कारण, बुरी बातें समाज के अन्य व्यक्तियों को भी प्रभावित करती है। विशेषकर उन्हें जिनकी सोच अभी परिपक्व नहीं हुई है।
- उदाहरण के लिए आपके बच्चे। उनकी सोच गीली मिट्टी की तरह होती हाट जिसे कुम्हार अपनी इच्छानुसार रूप दे सकता है। यदि आपके देवी-देवताओं के बारे में ऐसी बातें फैलती रहेंगी, और आप उन्हें अनदेखा करते रहेंगे, तो निश्चित जानिये, आपके बच्चे उन गन्दी सोचों से अछूते नहीं रहेंगे।
किस भ्रम में जीते हैं, कि आपके बच्चे, आपके-ही संस्कार, पाते हैं?
आप इस भ्रम में न रहिये कि आप अच्छे संस्कार देते हैं अपने बच्चों को, इसलिए आपके बच्चे ऐसी गंदी सोच से प्रभावित नहीं होंगे। जरा अपने बच्चों की ओर ध्यान से देखिए।
कितना समय आपके बच्चे आपके साथ बिताते हैं? सुबह उठकर भागा-भागी में स्कूल जाते हैं, जहाँ शिक्षक उन्हें हमारे देवी-देवताओं के बारे में कुछ अच्छी बातें नहीं बताते क्योंकि आप अपने बच्चों को 'इंग्लिश-मीडियम' 'कॉनवेंट-मिशनरी-ईसाई' स्कूलों में भेजते हैं उन्हें 'स्मार्ट' बनाने के लिए।
स्कूल से लौटकर जल्दी-जल्दी खाना खाकर वे भागते हैं खेल के मैदान की ओर। वहाँ से लौटकर बैठ जाते हैं स्कूल का 'होमवर्क' पूरा करने के लिए। फिर समय मिला तो टी वी देखने बैठ जाते हैं।
इन सब व्यस्तताओं के बाद यदि उन्हें बात करने का समय मिलता भी है तो वह फोन पर अपने दोस्तों के साथ बात करने में बीत जाता है। और यदि आपके बच्चों में 'रोमांस' का बुखार चढ़ा हो तो फिर उन्हें खयालों की दुनिया में जीने की आदत पड़ जाती है, तब उनके पास और किसी से बात करने का कोई समय नहीं होता।
इन सब के दौरान यदि थोड़ा-सा समय उन्हें आपके साथ बात करने को मिल भी जाता है तो वे आपसे 'दिल खोलकर' कितनी बातें करते हैं? क्या वे मन ही मन ऐसा नहीं सोचते कि आपके और उनके खयाल मिलते नहीं? उनकी नजर में आपका 'नजरिया' पुराना है, सम-सामयिक नहीं।
- सो इन सब के बीच आपसी वार्तालाप का जो थोड़ा-सा समय मिलता है तो उस दौरान आप उनकी सोच को कितना प्रभावित कर पाते हैं? और यदि नहीं कर पाते हैं तो फिर किन संस्कारों के भरोसे आप इतने आश्वस्त होकर बैठे रहते हैं?
- आज के बच्चे जो संस्कार पाते हैं वे अपने स्कूल से पाते हैं, अपने दोस्तों से पाते हैं, टी वी मे दिखायी जाने वाली घटिया हास्य-नाच-हिंसा-नग्नता-विवाह के पूर्व यौन-संबधों की सम-सामयिकता से ओत-प्रोत प्रोग्रामों से पाते हैं।
वे कलाकार जो अपनी कला के माध्यम से सारे विश्व को बताते हैं कि उनकी नजरों में हमारे भगवान शिव एक कुत्ते जैसे हैं
इन ईसाई धर्मगुरुओं की सीख को आगे बढ़ाते हैं वे कलाकार जो अपनी कला के माध्यम से विश्व को बताते हैं कि हमारे शिव-शंकर की अहमियत उनकी नज़रों में क्या है। उदाहरण के लिए देखिए http://www.timnortonart.com/pages/painting%20pages/Saints%201.html यह चित्रपट (कैनवास) के ऊपर एक तैलचित्र (ऑयल पेंटिंग) है जिसमें कलाकार टिम नॉर्टन ने हमारे भगवान शिव को कुत्ते के रूप मे दिखाया है। इस तैलचित्र का आकार 30" x 24" है और इसका मूल्य एक हज़ार डॉलर रखा गया है (चालीस-पैंतालीस हजार रुपये)।
19-11-2006 2:05 AM अभी मैं टिम नॉर्टन के वेब साइट पर गया क्योंकि अगले दो-तीन दिनों में इस तृतीय संस्करण को प्रेस में भेजने की तैयारी में लगा हुआ हूँ। वह फोटो मुझे वहाँ नहीं दिखी। आज से नौ महीने पहले द्वितीय संस्करण को लिखते समय मैंने वह फोटो वहाँ देखी थी। मुझे आश्चर्य हुआ और मैंने अभी-अभी टिम नॉर्टन को एक ईमेल भेजा। उसके बाद मैं 'हिन्दू जागृति समिति' के वेब-साइट पर गया (www.hindujagruti.org). उन्होंने एक 'आपत्ति अभियान' चलाया था जिसमें मैंने भी हस्ताक्षर किये थे। वहाँ जाकर पता चला कि टिम नॉर्टन ने क्षमा-प्रार्थना के साथ उस तैल-चित्र को अपने वेब-साइट से हटा लिया है।
- इससे हम यह तो जान पाते हैं कि जब तक हम चेष्टा नहीं करेंगे तब तक हम यह नहीं जान पायेंगे कि इसका फल मिलेगा या नहीं। हाँ, यह सत्य है कि हर चेष्टा का फल तुरंत नहीं मिलता। पर इस बात से हतोत्साहित होकर यदि हम चेष्टा करना छोड़ दें तो हम यह कभी नहीं जान पायेंगे कि हमारी कितनी चेष्टायें केवल इस लिए फलीभूत न हो सकी क्योंकि हमने कभी चेष्टा ही न की।
इटली की कम्पनी मिनेल्ली ने जूतों पर भगवान श्री राम के चित्र छापे
इटली की कम्पनी मिनेल्ली ने जूतों पर भगवान श्री राम के चित्र छापे। अपने विज्ञापनों में इस बात विशेष रूप से उल्लेख किया ताकि अधिकाधिक लोग उन्हें खरीदें।
- जिन्होंने इन जूतों को बाजार में बेचने लिए बनाया और जिन्होंने उन्हें चाव से खरीदा, उन सभी की नजरों में हमारे भगवान श्री राम की जगह उनकी जूतियों में थी।
- हिन्दुओं ने इस बात पर आपत्ति की। अन्त में कम्पनी को ये जूतियाँ बाजार से वापस लेने पड़े। विवरण - www.hindujagruti.org 19-11-2006
पर जो खरीद चुके थे, उनसे वापस नहीं लिया जा सकता। उनके लिए अब यह अपने दोस्तों के साथ चर्चा एवं नुमाईश की वस्तु बन गई।
न्यू यॉर्क (अमरीका) की कम्पनी ने मोजों पर ॐ छाप कर बेचना शुरू किया
न्यू यॉर्क अमरीका की गोल्ड मेडल होज़ियरी (Gold Medal Hosiery) नामक कम्पनी ने मोजों पर ॐ छाप कर बेचना शुरू किया। इन मोजों की डिज़ाइन तैयार की गई थी न्यू यॉर्क की लिन्डा मैड्डॉक्स (Linda Maddocks) के द्वारा एवं मोजे बनवाये गए थे दक्षिण कोरिया में।
- यदि साधारण ईसाई दूध के धुले भलेमानुस थे, तो उन्हें इन मोजों का बहिष्कार करना चाहिये था, जो उन्होंने नहीं किया, बल्कि उन्हे बड़े चाव के साथ खरीदा और पहना, ताकि वे महसूस कर सकें कि हमारे ॐ का स्थान उनके पैरों तले है।
- यह सोच, यह भावना उनमें कैसे उपजी यह जानने के लिये आपको मेरी अन्य पुस्तकें पढ़नी होंगी, जो आपको इस बात से अवगत करायेंगी ईसाई धर्म का धर्मग्रंथ बाइबिल उन्हें हिन्दू धर्म जैसे मूर्तिपूजक धर्मों को किस दृष्टि से देखना सिखाता है।
4-7-2003 को अमरीका की IndiaCause नामक हिंदू संस्था ने इस पर आपत्ति करते हुए कम्पनी को लिखा। 11-7-2003 को कम्पनी के अध्यक्ष पॉल रोटस्टीन (Paul Rotstein) ने खेद प्रगट करते हुए IndiaCause को ईमेल भेजाइस आश्वासन के साथ कि वे इस गलती को दुहरायेंगे नहीं, पर उन्होंने न ही इस बात का आश्वासन दिया कि बाजार में बिक रहे मोजों को वापस लेंगे या नहीं, और जो माल उनके गोदामों में है उन्हें बाजार में बिकने लिए छोड़ेंगे या नहीं। विवरण - www.indiacause.com
वैसे जो हानि होनी थी वह तो हो चुकी। लाखों ईसाई जनसाधारणों के घर-घर पहुँच गयीं ये मोजे, और उन्हें मौका मिल गया इस बात का कि वे हमारे ॐ को अपने पाँवों मे अपने जूतों के साथ स्थान दें।
- जहाँ तक कंपनी के अध्यक्ष द्वारा खेद प्रगट करने का प्रश्न है, उसे दुनिया न जान पायेगी, और अन्य कम्पनियाँ इसे अपने-अपने ढंग से दोहरायेंगी, और अगर किसी ने आपत्ती की तो खेद प्रकट कर छुट्टी पा लेंगे।
- कोई आपत्ति करेगा तभी, जब कि उसे मालूम पड़ेगा कि दुनिया के किस कोने में क्या हो रहा है। इस प्रकार दुनिया भर में जगह-2 समय-2 पर ऐसी वारदातें होती रहेंगी ईसाइयों के संसार में इस तरह की हरकतें फैलती रहेंगी, और हम अपने जान-पहचान वालों में डींग हाँकते फिरेंगे एवं पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहेंगे कि सारी दुनिया में हमारे हिंदू धर्म की क्या साख है, और अपने ही देश में हम हिंदू अपने धर्म को उस इज्जत की नजर से नहीं देखते।
- कभी तो ऐसे लोग चेतेंगे, अपने दिल को बहलाना बंद करेंगे, और अपने हिंदू भाइयों को इस काल्पनिक दुनिया की ओर नहीं धकेलेंगे। अज्ञान अपने-आपमें उतना बुरा नहीं है, जितना कि ज्ञानी होने का दम भरते हुए अपने अज्ञान को दूसरों में फैलाना।
ग्रीस में माँ दुर्गा को शराब बेचते हुए दिखाया जा रहा है
"एथेन्स (ग्रीस) के बालोन ओरिएन्टल डिस्को बार के अंदर एवं बाहर लगे पोस्टरों पर दुर्गा अपने दाहिने हाथ में सदर्न कम्फ़र्ट ह्विस्की (शराब) की बोतल लिए।" विवरण - Hindustan Times, 14-2-2005, p 1
अब विदेशों में नाचने के स्थलों पर शराब बेचने के लिए हमारी पूजनीय माँ
दुर्गा की छवि का प्रयोग किया जा रहा है।
वहाँ के रहने वाले भारतीय पिछले तीन महीनों से उन पोस्टरों के हटाये जाने की
माँग कर रहे हैं पर इसे सदर्न कम्फ़र्ट ह्विस्की बनाने वाली शराब की अमरीकी
कम्पनी पूरी तरह से नज़रअंदाज़ करती रही है।
ग्रीस का ईसाई धर्म के साथ बड़ा पुराना रिश्ता है। बाइबिल ग्रीक भाषा में
लिखी गई थी। अमरीकी मूर्तिकला (Sculpture) पर ग्रीक मूर्तिकला का प्रभाव बहुत
गहरा है। आधुनिक (ईसाई) औषधि विज्ञान का जन्मस्थान भी ग्रीस ही माना जाता है।
वहाँ हिन्दुओं की तादात कम होगी। उनकी आवाज़ उतनी बुलन्द न होगी। सो वहाँ व्यवसाय
करने वाली अमरीकी कम्पनी ने इस बात का फ़ायदा उठाया। हिन्दुओं की माँग को नजरअंदाज
कर दिया।
- ऐसी स्थिति में राजनयिक दबाव काम आ जाते हैं। यदि भारत एक शक्तिशाली
हिन्दू राष्ट्र होता तो उसकी एक हुंकार पर पिद्दी से देश ग्रीस को सोचना
पड़ता कि उस अमरीकी शराबी कम्पनी के साथ क्या सलूक किया जाये। राजनयिक दबाव
के जरिए ऐसी न सुलझने वाली अनेक छोटी-मोटी समस्याओं का निदान ढूंढा जा
सकता है।
पर उसके लिए राजनयिक मनोबल की आवश्यकता होती है। ईसाई सोनिया - मुसलमान कलाम - मार्क्ससिस्ट मनमोहन के राज में यह सम्भव नहीं। न ही यह संभव होता नेहरुवादी-हिन्दू हाजपाई द्वारा क्योंकि कौआ अगर चले हंस की चाल तो वह हंस नहीं बन जाता। उसी प्रकर बेपेंदी के लोटे लालकृष्ण से भी यह न हो पाता, क्योंकि जाने कब वह किधर लुढ़क जाता। - ऐसी स्थिति में, हिन्दू अगर अपने धर्म की रक्षा चाहता है तो उसे विकल्प तो ढूंढ़ना ही पड़ेगा।
टोरॉन्टो स्टार माँ दुर्गा की नंगी तस्वीर छापता है
टोरॉन्टो स्टार के पास यह पूर्ण वस्तावृत सुसज्जित अतीव सुंदर मूर्ति थी पर इसे उन्होंने छापने योग्य न समझा
Mega City Toronto कैनेडा मे स्थित है। भौगोलिक आयाम के अनुसार सन 2000 में यह विश्व कासबसे बड़ा शहर हुआ करता था। टोरॉन्टो स्टार नामक दैनिक वहाँ का सबसे अधिक जनप्रिय समाचार पत्र है। बात 2003 की है। जब उन्हें दुर्गा पूजा के अवसर पर माँ दुर्गा की फोटो अपने दैनिक में छापने की इच्छा हुई तो उनके पास चार चित्र थे जिनमें से तीन मूर्तियाँ जो बनकर तैयार थीं और एक मूर्ति जो अभी पूरी नहीं हुई थी।
टोरॉन्टो स्टार के पास ये तीन पूर्ण वस्तावृत मूर्तियाँ थीं जिनमें से एक वह चुन सकते थे यदि उनकी भावना माँ की फोटो को दर्शाने की होती। वे उनमें से एक को चुन सकते थे यदि उनकी दृष्टि में हिन्दुओं की एवं हिंदुओं के भावनाओं की कोई कद्र होती।
टोरॉन्टो स्टार के पास यह दूसरी वस्तावृत सुसज्जित मूर्ति भी थी पर इसे भी उन्होंने छापने योग्य न माना
टोरॉन्टो स्टार के पास यह तीसरी वस्तावृत मूर्ति भी थी पर इसे भी उन्होंने छापने योग्य न जाना
पर उन्होंने जानबूझकर उस असमाप्त मूर्ति को छापा। हिन्दू धर्म के प्रति ईसाइयों में घृणा इतनी प्रखर है कि उन्होंने माँ को पूर्ण नग्नावस्था में दिखाना अधिक आनन्ददायी पाया।
यह मूर्ति जो अभी अपूर्ण थी उसे ही उन्होंने छापा — पूरे पृष्ठ के
एक-तिहाई हिस्से पर फैला कर ताकि हरेक की नजर पड़े — जो फोटो उन्होंने
छापी उस फोटो में ये काली पट्टियाँ नहीं थीं
source: http://www.hindujagruti.org/ 22-11-2006
- बातों से आप उनके असली चेहरे को न देख पायेंगे। वे आपको बड़े-ही मिलनसार, भद्र, अन्य धर्मों का आदर करने वाले, सुनने-में अच्छी-लगने-वाली-बातें कहने वाले लगेंगे। उनके आचरणों का विश्लेषण कर पायें तो दूसरा-ही चेहरा नजर आयेगा।
- यह प्रथा रही है कि मूर्तिकार पहले मूर्ति को पूरा करता है फिर उसे वास्तविक वस्त्रों से सुसज्जित करता है। वस्त्र मूर्ति के अंग नहीं होते अर्थात मिट्टी और रंग के बने वस्त्र माँ को नहीं पहनाये जाते, बल्कि असली वस्त्र पहनाये जाते हैं जो कपड़ों के बने हुए होते हैं। मूर्तिकार की चेष्टा होती है कि वह उसे मूर्ति से बढ़कर जीवन्त माँ का स्वरूप दे सके। जब पूजा का समय आता है तो माँ की उस मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है।
- जब तक मूर्तिकार माँ की मूर्ति को वस्त्रावृत नहीं कर देता, तब तक हम हिन्दू उसे नहीं देखते। जहाँ तक मूर्तिकार का प्रश्न है, वह गीली मिट्टि से गढता है, पल-पल उसे देखता अपने माँ के रूप में, इस भावना से सजाता है। उसकी आँखें एक स्त्री के शरीर को नहीं देखती। वह माँ को अपने भाव में गढ़ता है, उसकी सोच में वह पवित्रता होती है जो उस मूर्ति से झलकती है, जिसे हम देखते हैं।
- मुझे याद है अपना बचपन। हमारे मंदिरों में एक छोटा-सा बोर्ड लगा हुआ करता था। देवी-देवताओं के मूर्तियों की फोटो खींचने की मनाही हुआ करती थी। अपने-आपको अधिक अकलमन्द मानने वाले व्यक्ति, इस मनाही पर एतराज किया करते थे। कारण, उन्हें यह मनाही तर्क संगत नहीं लगा करती थी।
- फोटो का कैसा दुरुपयोग हो सकता है इसका उन्हें भान न था। और जिस बात का उन्हें भान न होता, उसे वे तर्कसंगत मानने से इंकार करते थे। अन्य शब्दों में, वे मानते कि उनका ज्ञान ही, वह सीमा है, जो निर्धारित करता है, कि क्या तर्कसंगत है और उचित है। इन मन्दअकल वालों को, अपनी ज्ञान की सीमा का ही, ज्ञान न था।
यह उपहार था, टोरॉन्टो स्टार की तरफ से, दुर्गा पूजा के दिन, हिन्दुवों को। तारीख थी 4 अक्टूबर 2003। फोटो तो इतना बड़ा था कि समाचार पत्र के इतने बड़े पृष्ठ का एक-तिहाई हिस्सा उसने घेर लिया था। उस फोटो को इतनी महत्त्ता देकर छापने का कारण स्पष्ट था। वे जानबूझकर अ-हिन्दू पाठकों के मन में हिन्दू धर्म के बारे में गलत धारणा फैलाना चाहते थे।
10 अक्टूबर को इंडिया-कॉज़ ने ऑन-लाइन आपत्ति-अभियान आरम्भ किया। पहले चन्द घन्टों के अन्दर एक से दो हजार के बीच आपत्ति-ईमेल टोरॉन्टो स्टार के कार्यालय में पहुँचे। 11 अक्टूबर को टोरॉन्टो स्टार ने प्रकाशित किया दो पंक्तियों का खेद स्वीकारोक्ति — "हमें खेद है कि हमारे द्वारा प्रकाशित देवी के चित्र ने कुछ व्यक्तियों की भावनाओं को ठेस पहुँचायी"। आधे-मन से दिया गया यह खेद, इंडिया-कॉज़ को स्वीकार न था। आपत्ति-अभियान जारी रहा। स्थानीय भारतीयों ने घोर आपत्ति की - टोरॉन्टो स्टार के कार्यालय के सामने दो बड़े प्रदर्शन किये गये। अन्त में 15 नवम्बर को टोरॉन्टो स्टार ने स्पष्ट रूप से क्षमा-याचना प्रकाशित की, देवी माँ की एक उपयुक्त फोटो के साथ, उसी पृष्ठ पर जहाँ पहले वह नग्न तस्वीर छापी थी।
- इस घटना से आप यह देखते हैं कि कोई भी कर्म विफल नहीं होता। हाँ, समय लगता है। चेष्टायें जारी रखनी पड़ती है। हार मान कर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से कुछ हासिल नहीं होता। और 'समय' से पहले कुछ नहीं मिलता।
- इसमें 'समय' सबसे महत्वपूर्ण घटक है। यदि समस्या विकट है, तो समय भी अधिक लगेगा। पर हमारा धैर्य बहुत जल्दी टूट जाता है।
- 'समय' को हम 'अपने जीवन-काल' की परिधि में बाँध लेना चाहते हैं। हमारी चेष्टा का फल यदि हमें, हमारे 'अपने जीवन-काल' में नहीं मिलता, या फिर मिलने की सम्भावना नहीं प्रतीत होती, तो बस हमारे धैर्य का बाँध टूट जाता है।
- हम मान बैठते हैं कि हमारी चेष्टाओं से कुछ होने वाला नहीं है। 'आजादी' कोई जादुई-चिराग नहीं है कि 'आजादी' मिलते ही सब कुछ ठीक हो जाना था।
अमरीकी नारी रोबिन फ़ोले की बनायी हुई माँ दुर्गा के अर्धनग्न गुड़िये बाजार में
पोर्टलैंड,
अमरीका कि रॉबिन फ़ोले ने माँ दुर्गा की अधनंगी गुड़िया (dolls) बनाकार बेचना
शुरू किया अपने वेबसाइट के द्वारा। हिन्दू जाग्रुति समिति ने ईमेल द्वारा अपत्ति
की। अनेक आपत्तियों के पश्चात उसने वेबसाइट के मुख्य पृष्ठ से माँ की वह तस्वीर
हटा दी पर इंडेक्स से नहीं हटाया।
आरम्भ में वह इसके लिए भी तैयार न थी। जब आपत्ति-अभियान शुरु की गई थी तो उसे
हटाने के बजाय उसने धमकी दी थी कि वह यह मामला एफ़-बी-आई (FBI) को सौंप देगी।
इसका जवाब दिया गया - "एफ़-बी-आई ही नहीं, तुम सारी अमरीकी फ़ौज को बुला लो"
और "एफ़-बी-आई दुर्गा माई से बड़ी नहीं है"।
आपत्ति अभियान बढ़ता गया और अन्ततोगत्वा उसने मुख्य पृष्ठ से तस्वीर हटा ली
और यह भी कहा कि वह स्वयं भी ये गुड़िये नहीं बेचेगी। पर चूँकि इंडेक्स सेक्शन
में अभी छोटी तस्वीर बची है, हिन्दू जनजाग्रुति समिति ने अपना अभियान बंद नहीं
किया है। विवरण - http://www.hindujagruti.org 23-11-2006
संदर्भ सूची
क्रम - अंतर्राष्ट्रीय मानक पुस्तक क्रमांक ISBN [संस्करण] लेखक, शीर्षक
ISBN 0-14-100437-1 [2000] F Max Muller, INDIA what can it teach us?
ISBN 81-85990-21-2 [1995] Ishwar Sharan, The Myth of Saint Thomas and the
Mylapore Shiva Temple
ISBN 81-85990-46-8 [1997] Matilda Joslyn Gage, Woman, Church and State -
a historical account of the status of woman through the Christian ages with
reminiscences of the matriarchate
ISBN 81-85990-60-3 [2000] David Frawley (Vamadeva Shastri), How I became
a Hindu-my Discovery of the Vedic Dharma
The Free Press Journal, Mumbai edition
Hindustan Times, Mumbai edition
The Times of India, Mumbai edition
दैनिक जागरण, नई दिल्ली
फ़ादर कामिल बुल्के, अंगरेजी-हिन्दी कोश, काथलिक प्रेस, राँची, 1968
हिन्दू वॉइस, मासिक पत्रिका, मुम्बई