श्री श्रुतिवन्त दुबे 'विजन'
राष्ट्रपति पदक प्राप्त, राष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित, विद्यावाचस्पति
(मा0)
जिला अध्यक्ष इण्डियन प्रेस कौंसिल, जिला सीधी, म प्र, पत्रांक 116, दिनांक
29-7-2006
श्री श्रुतिवन्त दुबे 'विजन', ग्राम पो0 डगाबरगवाँ, जि0 सीधी, म प्र 486
886, फोन 07805-280062
(यह समीक्षा पुस्तक के प्रथम खण्ड के प्रथम संस्करण पर आधारित है)
"मानोज रखित लिखित लघु कृति पढ़ा। प्रभाव वृहद पाया। धर्म की सर्वव्यापकता, सर्व ग्राह्यता, सार्वजनीनता पर विचार करती छोटी पुस्तिका अतीत की खोज वर्तमान पर दस्तक देती व भविष्य को आगाह करती है। धर्म पाखण्ड पर चोट करता लेखक पाखण्डियों को फटकार भी लगाता है। धर्म के वास्तविक स्वरूप को बिना जाने खोखले व अधूरे ज्ञान को बांटते उपदेशकों के खोखले व सपाट चेहरों को उजागर करता है। सच्चाई पूर्वक व भयमुक्त कलम धर्म की व्याख्या में निष्ठावान व आस्थावान है। मैं निरन्तर रखित की पुस्तकों का अध्ययन करता आ रहा हूँ। हर पुस्तक में नवीनता मिलती है। अदम्य साहस, लगन और उत्सह की जीवट यात्रा में अग्रसर कलम मानवीय धर्म की प्रस्तोता है। हिन्दू धर्म में स्वरूपगत व नैतिक गिरावट चिन्ता का विषय है। यही कारण है कि लेखक चिन्तित है तथा धर्म उन्नयन हेतु अपने सन्देश-पत्रों के माध्यम से हिन्दू धर्मावलम्बियों और धार्मिक मठों का आह्वान भी करता है। सभी धर्मों की समानता का मिथ्या प्रलाप करने वाले धर्मपूत स्वतः अज्ञानी हैं तथा अपने उसी अज्ञान को आज तक परोसते आ रहे हैं। यह झूठा सच हिन्दू मूल्यों, हिन्दू ज्ञान व हिन्दू वेष, परिवेष व देश के लिए घातक है। "बड़ी संख्या में हिन्दू धर्मोपदेशक कहते हैं कि सभी धर्म उसी एक ईश्वर तक ले जाते हैं हम सबको।" दूसरी ओर "पर सभी एक जैसे नहीं हैं, मुट्ठीभर धर्मोंपदेशक उन सबसे अलग हैं" स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी देवानन्द सरस्वती, स्वामिनी प्रमानन्द सरस्वती, स्वामी सिद्धबोधानन्द सरस्वती, महामण्डलेश्वर डॉ स्वामी शिवस्वरूपानन्द सरस्वती, आचार्य श्री अवस्थी, आदि के नाम पुस्तिका में बड़े सम्मान के साथ अंकित हैं। मैं शुद्ध श्रद्धा व भक्ति के साथ नतमस्तक हूँ। ऐसे धर्मगुरुओं का चरण-रज पाने के लिए व्याकुल हूँ। इसलिए नहीं कि चरण-रज मेरे मोक्ष का साधन बने, बल्कि इसलिए कि वह चरण-रज ज्ञान-रज बनकर उन तक पहुॅँचे जो हिन्दू होकर भी देश के गाँवों मे बहुसंख्या में सुसुप्ति की अवस्था में हैं। 'बड़ी संख्या' वाला धर्मोपदेश ही प्रचारित है अधिक, 'मुट्ठीभर' का उपदेश भले ही सचाई का सौगन्ध खाये, बहुसंख्या तक नहीं पहुँच पा रहा है; मुट्ठीभर तक ही सीमित रह गया है। कितना अच्छा होता- छोटी-छोटी सन्देश पुस्तिकाओं के माध्यम से दूरस्थ हिन्दू समाज मे धर्मसूचना रूप में पहुँचता।
इस नन्ही पुस्तिका के लेखक रखित को मैं उनके दीर्घायु की कामना के साथ धन्यवाद देना चाहूँगा, जिन्होने धर्म व्याख्या प्रस्तुत कर हिन्दू धर्म के उद्धार की दिशा मे अपना कदम उठाया है। बंगाली धरती की कोख के पावन उपज, नारायणी माँ के प्रिय, सम्पूर्ण धर्मों के व्याख्याता रखित से हिन्दू धर्म की अपेक्षायें अभी और हैं। आवश्यकता इस बात की है कि नन्हे धर्म-सन्देश देश के कोने-कोने में, हिन्दू समाज में पहुँचें। मगर अकेले लेखक यह भार नहीं उठा सकता। साधन संसाधन सम्पन्न धर्म संस्थाओं, धार्मिक मठों को चाहिए कि वे आगे आयें व इस पवित्र कार्य में मदद करके हिन्दू धर्म को क्षरण से बचायें। विभिन्न धर्मों के अंधेरे परतों को खोलते हुए सूर्य की प्रतीक्षा करें। सूर्योदय होने पर उजाला तो होगा ही। अंग्रेज गए किन्तु भाषा छोड़कर। 1947 के पहले अंग्रेजों का शासन था। 1947 के बाद अंग्रेजी भाषा का। व्यक्ति का शासन बाहरी धरातल पर होता है, किन्तु भाषा का शासन आन्तरिक धरातल पर। यही कारण है कि हिन्दू संस्कृति को प्रभावित करती अंग्रेजी भाषा हिन्दू नौनिहालों को वयस्क अंग्रेजी बनाती जा रही है। इसे लेखक ने बड़े ही सरल ढंग से व्यक्त किया है - "अंग्रेजी शिक्षा हमे अपने ही सांचे में ढालती जा रही है और भूलिए मत कि हमारे ये नेता, ये शिक्षक, ये बुद्धिजीवी, ये दिग्दर्शक, ये धर्मोपदेशक सभी ईसाई-अंग्रेजी शिक्षा की पैदावार हैं" इन पंक्तियों के प्रस्तुतिकरण मे लेखक का इशारा शासन की ओर भी है। क्या अंग्रेजी शिक्षा पद्धति का बिरबा हिन्दुस्तान की हिन्दू-भूमि पर उर्वरक पाकर अनन्त काल तक लहलहाता रहेगा? संविधान में निर्दिष्ट पन्द्रह वर्ष क्या कभी बीतेंगे? संविधान मे प्रयुक्त किन्तु परन्तु क्या देश हित, समष्टि हित लीलते रहेंगे? यह सवाल है राजनीति से। हालांकि, इन सवालों से राजनीति को लाल मिर्ची भी लग सकती है। कुल मिलाकर व्याख्या शोध आधारित, हिन्दूधर्मसाधक, मानवीय मूल्य रक्षक व हिन्दुत्व बोधक है। कृति संप्रेषनीय, पठनीय व संग्रहणीय है। मेरी मंगल कामनायें कृति व कृतिकार दोनों के लिए।"