तृतीय संस्करण की भूमिका
अब तक आप दिवा-स्वप्नों में खो जाना अधिक पसंद करते रहे हैं। यह एक भगोड़े की निशानी होती है। ऐसा भगोड़ा जो समय की मार को सहते-सहते निस्तेज-सा हो गया है। आज आपको एक सुभाष या विवेकानन्द की आवश्यकता है जिसकी सिंह-गर्जना को सुन कर आप अंगड़ाई लेकर उठें और उसके साथ चल पड़ें। समय आने पर उस पुरुष-सिंह का भी आविर्भाव होगा पर तब तक हम हाथ धरे बैठे तो नहीं रह सकते हैं! हमें माटी को तैयार करना होगा ताकि वह फ़सल पैदा करने के लायक बने। वह माटी जो लंबे समय से अकाल-ग्रस्त हुआ पड़ा है, उसे हल चलाकर जोतना होगा। जब बैल उसे रौंदेंगे, हल की पैनी नोंक उसके तन पर चुभेगी, तब तकलीफ तो होगी उसे। बीज बोने, और उसे सींचने, से पहले यह सब तो करना ही होगा। मैं कुछ ऐसा ही करने जा रहा हूँ। जो कुछ मैं आपसे कहूँगा उसे सुनकर आपको कष्ट तो होगा पर कैसे आप उसे झेलते हैं, स्वीकार करते हैं, इस पर आपका कुछ भविष्य तो निर्भर करेगा ही।
जब तक आप सत्य को जानते नहीं, तब तक आपको कोई दोष नहीं दे सकता। जब आप उसे जान लेते हैं तब आपका भी कुछ कर्तव्य बनता है। उस स्थिति में आप क्या कर सकते हैं यह आपके अपने साधनों पर निर्भर करता है और प्रत्येक व्यक्ति के पास कोई न कोई साधन तो अवश्य ही होता है। तब आप अपने कर्तव्य को पूरा करते हैं या फिर उससे मुँह मोड़ लेते हैं इसका निर्णय भी आपको ही करना होता है।
आपको जानने का अधिकार तो है कि यह कृति किन ग्रंथों तथा शोधों पर आधारित है। उनकी सूची यहाँ संलग्न है ताकि आवश्यकता जानें तो स्वयं उनका परीक्षण कर सकें।
परिवर्तन-परिवर्धन संसार का नियम है। द्वितीय संस्करण में कुछ सुधार किए गए तथा कुछ नई विषय-वस्तु जोड़ी गई। तृतीय संस्करण में भी कुछ सुधार किए गए हैं। इच्छा हुई कि 26-11-2008 की घटनाओं को इस संस्करण मे जोड़ूँ पर समयाभाव के कारण यह न हो सका। मैंने यह निर्णय लिया है कि अब मैं पुस्तकों का स्टॉक अपने पास नहीं रखूँगा। इससे आर्थिक बोझ भी बढ़ता है तथा उन्हें स्वयं पैक कर डाकघर ले जाना, सब लेन-देन का हिसाब रखना, इन सब में बहुत समय चला जाता है। लेखन का कार्य रुक जाता है। अतः केवल अग्रिम भुगतान के आधार पर ऑर्डर की गई मात्रा ही छपवाउँगा। अनेक ऐसे व्यक्ति हैं जो आर्थिक रूप से समृद्ध हैं पर लेखन कार्य में कुशल नहीं, ऐसे व्यक्ति यदि जनता-जनार्दन की सेवा करना चाहते हैं तो इन पुस्तिकाओं को छपवा कर वितरित कर सकते हैं। वर्तमान संस्करण की हजार प्रतियाँ ऐसे ही किसी व्यक्ति के आग्रह पर छपवायी जा रही हैं जो अपना नाम अपने तक ही सीमित रखना चाहती हैं। ईश्वर उनका भला करें।
द्वितीय संस्करण की भूमिका
उनकी कथनी नहीं, बल्कि उनकी करनी को देखो
तुम्हारे नेता, दिग्दर्शक एवं राष्ट्र की सोच को दिशा देने वाली मीडिया, चाहे तुम्हें कितना भी समझायें कि साधारण मुसलमान की सोच वैसी नहीं जैसी आतंकवादियों की है, पर तुम तो कम से कम अपने दिमाग का प्रयोग कर सकते हो ना? कौन क्या कहता है, इस फेर में क्यों पड़ते हो, जब तुम्हारे पास जीवन्त उदाहरण हैं।
परसों की ही खबर को देख लो। 29-11-06 Times Nation का सबसे महत्वपूर्ण फोटो,
पृष्ठ के सबसे ऊपर। पृष्ठ के छपे हुए हिस्से की चौड़ाई 13" है। उसमें से 8"
की चौड़ाई इस फोटो को दी गई है, अर्थात लगभग दो-तिहाई हिस्सा। महत्वपूर्ण समाचार
पत्रों में छपने योग्य प्रत्येक इंच की कीमत क्या होती है इसका अनुमान लगाने
के लिए आपको उनके विज्ञापनों की दरें देखनी होंगी (यदि आप उन दरों को सेंटीमीटर
में पढ़ते हैं तो ध्यान रखें कि उन्हें आपको अढ़ाई गुणा बढ़ा देना है इंच के संदर्भ
में)।
दृष्य है कश्मीर के एक गाँव की। नाम है जबली पोरा जो स्थित है कोई 45 किलोमीटर
दूरी पर श्रीनगर से दक्षिण की ओर।
उस फोटो में क्या है? अनगिनत सर - स्त्रियों के - चेहरों पर नकाब नहीं। ध्यान दीजिए कि जब स्त्रियाँ सड़क पर आती हैं हाय-तोबा मचाते हुए, तो आपको यह मान कर चलना होगा कि पुरुषों की सोच और सहानुभूति उनसे पाँच कदम आगे बढ़ कर ही होगी, उनसे अलग नहीं। इसे कहते हैं जन-मत का प्रदर्शन। तो क्या था वह जनमत जिसके प्रदर्शन हेतु स्त्रियाँ भी सड़क पर आ गईं?
उस फोटो के नीचे छपी हुईं दो लाइनें इस बात का अंदाजा कराती है आपको। लाल अक्षरों में छपा हुआ था WAILS SAY NOT ALL'S WELL अर्थात "रुदन बताता है कि सब कुशल नहीं" ! क्या वजह थी उन स्त्रियों के रुदन की? वे क्यों आ गईं थीं आज सड़क पर रोती-बिलखती? क्या उनका कोई सगा मर गया था? पर इतने अनगिनत स्त्रियों का सगा आखिर कौन हो सकता है? कोई एक आदमी मरा हो तो उसके इतने सारे सगे तो हो नहीं सकते। क्या ढेर सारे आदमी मरे, जिन सबकी बीवियाँ मातम मना रहीं थीं?
तो लाल अक्षरों के आगे छपे काले अक्षरों को पढ़ते हैं। इससे हम जान पाते हैं कि माज़रा क्या था? केवल एक ही आदमी मरा था। उसका नाम था सोहेल फ़ैज़ल। आखिर वह कौन था जिसके इतने चाहने वाले थे?
नेता तो हो नहीं सकता क्योंकि नेताओं के लिए तो आज कोई आँसू नहीं बहाता। तो क्या कोई बड़ा धार्मिक व्यक्ति था? बड़े धार्मिक व्यक्ति के निधन पर लोग शोक तो मनाते हैं पर रोते-बिलखते नहीं बल्कि चुपचाप दुखी होकर सर झुका कर चलते हैं। पर यहाँ तो स्त्रियाँ सर उठा कर रोती-बिलखती दिखीं, और उनमें से एक तो दोनों बाँहें फैलाकर मातम मनाती हुई। तब तो कोई तो बड़ा ही प्यारा, बड़ा ही आदरणीय, बड़ा ही जाना-माना व्यक्ति मरा होगा जिसकी सभी बड़ी इज़्ज़त करते होंगे अपने दिलों में। फिर भी यह रोना-बिलखना और अपने गम का इतना प्रदर्शन तो कुछ समझ में नहीं आता। शायद मरा होगा किसी ऐसी स्थिति में जिसके कारण इतना गम छाया हुआ था चारों तरफ। प्राकृतिक मौत मरा होता तो इतना सब कुछ तो पर्दे पर न आता। तो फिर मरा कैसे?
एक बार फिर उसी पंक्ति में छपे हुए काले अक्षरों पर नजर डालते हैं। तो वह आदमी था एक बड़ा सेनापति। हैरानी की बात है कि लोग आजकल सेनापतियों के लिए भी रोते-बिलखते हैं? सोच में पड़ जाता हूँ कि जब हमारे जवान, उनके अफसर, उनके सेनापति देश के दुश्मनों के साथ लड़ते हुए "कारगिल" में शहीद हुए थे तो क्या यही औरतें सड़क पर आयीं थीं रोती-बिलखती हुईं? यदि नहीं तो फिर उनकी निष्ठा किसके प्रति है? भारतवर्ष के प्रति? या फिर भारत के दुश्मनों के प्रति? हमारे नेता तो बलि दे देते हैं हमारे जवानों की, उनके अफसरों की, उनके सेनानायकों की, मुशरर्फ़ के साथ भोज का मजा लेते हुई, दोस्ती के गाने गाते हुए क्योंकि वे सभी जानते हैं कि बलि चढ़ाये गये लोग अधिकतर हिन्दू ही होते हैं। और हिन्दू के जान की तो कोई कीमत होती ही नहीं। न थी राष्ट्रपिता के नज़रों में, न थी इस नवीन-भारत-के-निर्माता की नज़रो में, और न है आज उनके नक्शे-कदम पर चलते हुए उनके अनुयायियों की नजर में। तो फिर उनके जान की कोई कीमत कैसे हो इन मुसलमानों की नजरों में, जो खाते तो नमक इस वतन का हैंं, मानते इसे अपना ही वतन हैं, पर अपना-ही का मतलब होता है उनकी नजरों में मुसलमानों का वतन, जिसे अपनी भाषा में वे कहते हैं दार-अल इस्लाम!
अब देखो कल की ही एक और खबर 30-11-06 Times Nation में। उसे एक छोटे से कोने में छापा गया है, क्योंकि वह खबर हमारे "राष्ट्र-की-सोच-को-दिशा-देने-वाली-मीडिया" की दृष्टि में एक महत्वहीन-सी खबर थी। इस मामूली-से खबर के लिए समाचार पत्र का कीमती स्थान बरबाद करना उचित न समझा था उन्होंने। तो क्या इतनी महत्वहीन खबर थी वह?
जिन दो जैश-ए-मुहम्मद आतंकवादियों को पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर सोमवार 27-11-06 को पकड़ा गया था, उनके पास से बरामद हुए पाँच लाख रुपये और दो किलो RDX आर-डी-एक्स, जो आये थे देओबन्द से। अब पूछिए देओबन्द क्या है? उनका ऊपरी आवरण है एक शिक्षण संस्था जैसा। हाल ही में किसी समचारपत्र में पढ़ा था कि यह अँग्रेज़ों के जमाने का भारत का सबसे पहला मदरसा है। मैंने पहले भी कहीं विस्तार से आपको बताया है कि मुसलमान ईसाई-अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति को विश्वास की दृष्टि से नहीं देखते थे। हिन्दू वॉइस में काफी पहले छपे तवलीन सिंह की एक रिपोर्ट में पढ़ा था एक विवरण उनकी नजरों से। एक छवि-सी उभरी थी मेरे मन में जैसे कि बड़ी धाक रही हो इनकी, अर्थात इस संस्था की भारत के मुसलमान जगत में। यदा-कदा समाचारपत्रों में छपे छोटे-मोटे खबरों में भी पढ़ लेते हैं जैसे कि इस्लाम से सम्बंधित किसी महत्वपूर्ण या उलझे हुए विषय पर देओबन्द के निर्देशों को बड़ी महत्ता दी जाती है। इन बातों का जिक्र मैं क्यों कर रहा हूँ? आपको इस बात का अंदाजा दिलाने के लिए कि जहाँ से आतंकवादियों को रसद-पानी मिलता है उस संस्था की क्या इज़्ज़त है भारत के मुसलमानों की दुनिया में। इससे आपको एहसास होना चाहिए, विषय की गम्भीरता के बारे में। हालाँकि यह अलग बात है कि हमारे देश के सबसे बड़े समचारपत्र ने उस खबर को इतने महत्वहीन रूप से प्रस्तुत किया। ऐसा करने से किस-किस को कैसा-कैसा लाभ होता है इसका खुलासा मैं यहाँ नहीं करूँगा क्योंकि अन्य स्थानों पर मैंने आपसे इस विषय पर चर्चा की है। बाकी आप स्वयं समझदार हैं।
सोचने वाली बात यह है कि देश की सुरक्षा से संबंधित खबरों को इतनी कम अहमियत दी जाती है, उन सभी के द्वारा जो "देश को दिशा देते" हैं। इसी हफ्ते की शायद एक और खबर पर, क्या ध्यान दिया था आपने? देश के गद्दारों, राष्ट्र की सुरक्षा की दृष्टि से खतरनाक दुश्मनों, तथाकथित आतंकवादियों से जूझने वाले जिन्हें अपनी जान भी हथेली पर लिए घूमना होता है, उस संस्था के सरगना ने जब कुछ अधिक साधनों की माँग की तो हमारे मन को मोहने वाले मिस्टर क्लीन प्रधान मंत्री ने उन्हें फटकार सुनाई क्योंकि वह मुसलमानों के मन को मोहने के लिए बड़े चिंतित थे। उनकी धारणा थी कि इस राष्ट्र के रक्षकों के कारण इस देश के मुसलमानों को बड़ी तकलीफ़ झेलनी पड़ती है।
तो हम देखते हैं कि निष्ठाओं की भी अपनी पहचान होती है। राष्ट्र के रक्षकों को सरे-आम फटकारना और राष्ट्र के गद्दारों के लिए हमदर्दी जताना भी अपने-आप में कला है। इस खेल में एक "आज के" मनमोहन ही नहीं बल्ल्कि बड़े-2 दिग्गज भी शमिल हैं। सभी यह खेल खेलते जा रहे हैं अपने-अपने अंदाज़ में। याद आती है एक बड़े ही उदार व्यक्ति की। जब शुरू-2 में उनका नाम मीडिया पर छाने लगा था तो हर कोई उनकी स्तुति में बड़े-2 लेख लिखने बैठ जाता, या फिर उनकी कथनियों को ईमेल के द्वारा हजारों-लाखों में बाँटता फिरता। एक ऐसे ही लेख की याद आती है जिसे पढ़कर मैंने जाना था कि यह सज्जन मुसलमान होते हुए भी रोज श्रीमद्भग्वदगीता पढ़ते हैं। चारों तरफ उनके गुण-गान की हवा चल रही थी उन दिनों, जो काफी लम्बे अरसे तक चलती रही। उनकी छोटी-2 कथनियों को बड़ी महत्ता दी जाती थी, हालांकि उनकी करनी पर किसी ने कभी कोई ध्यान नहीं दिया। रोज गीता पढ़कर वह क्या सीखते हैं यह तो मैं नहीं जानाता पर जहाँ तक मुझे याद आता है,उन्होंने कभी अन्याय का विरोध नहीं किया। वह सारा अन्याय जो होता रहा है उनकी नाक के नीचे हिन्दुओं पर, इस दार-अल-हर्ब में (इस काफ़िरों के वतन में)। हाल ही में उन्होंने अपने असाधारण न्याय का एक और परिचय दिया। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने एक मुसलमान गद्दार को फाँसी की सजा दी और तारीख भी मुकर्रर कर दी। इस सजा को कोई टाल नहीं सकता था, सिवा उनके जो हर रोज गीता पढ़ते हैं। महीने भर से अधिक समय गुजर गया पर उसे आज तक फाँसी न दी जा सकी। यही नहीं बल्कि खबरों में यह बात भी कहीं से छुप-छुपा कर बाहर आ गई कि उन्होंने तुरंत बड़े आदर के साथ उस गद्दार की बीवी को चाय पर बुलाया। पर उस गद्दार से लोहा लेते हुए जिन हिन्दू जवानों ने अपने जान की कुर्बानी दी थी, उनके बीवी-बच्चों से मिलने का समय उन्हें आज तक नहीं मिला यद्यपि सालों बीत चुके हैं। आखिर मुसलमान का खून तो खुदा के बन्दे का होता है, जिसे बहने न देना हमारे देश के सभी बड़े लोगों का दायित्व है। हमारे राष्ट्रपिता ने बार-बार अनशन करके यह प्रथा कायम की थी। पर जहाँ तक काफ़िर हिन्दुओं के खून का सवाल है वह तो बहने और बहाने के लिए ही है क्योंकि वह अल्लाह का बन्दा नहीं, सो उस गन्दे खून का बह जाना जायज है।
खैर, अब लौट चलें जरा उस बड़े-से फोटो की ओर जिससे शुरू हुई थी यह कहानी। वह जिसका खून बहा था, नाम उसका एक मुसलमान का था, सोहेल फ़ैज़ल। हमने पढ़ा कि वह एक बड़ा सेनापति था। पर किस देश का सेनापति? उसी पंक्ति में छपे काले अक्षरों की ओर नज़र फेरी तो जाना कि वह सेनापति तो था, पर देश के रक्षकों की सेना का नहीं, बल्कि देश के गद्दारों की सेना का। हिज़्ब-उल-मुजाहिदीन नाम है गद्दारों की उस सेना का। देश के उस गद्दार ने मरते-मरते, भारत की सेना के एक देश-भक्त अफसर को मौत के घाट उतार दिया। पर ये भारतीय मुस्लिम नारियाँ उस देशभक्त का नहीं, बल्कि उस देशद्रोही का मातम मना रहीं थीं। निष्ठाओं की परख "कथनी" से नहीं, बल्कि "करनी" से होती है। यह एक ऐसी सीख है जिसे आप गाँठ बाँध लें। जिन्दगी में कुछ कर पायें, या न पायें, पर अपनी जन्मभूमि के लिए कुछ कर गुजरें तो आपकी सन्तानें गर्व से अपना सर ऊँचा कर कह सकेंगी कि हाँ, हमारे पूर्वजों ने धरती माता की लाज रखी थी। खबरें - Times of India, Mumbai, 29-11-2006 & 30-11-2006, both p 11
यह माकड़-जाल जो बुना जा रहा है हिन्दुओं के इर्द-गिर्द
3-12-2006 मानवता की दुहाई देते हुए, आजकल एक तमाशा खड़ा किया गया है, उन लोगों के द्वारा जिन्हें हमारे देश का कानून राष्ट्र-द्रोह का अपराधी तो नहीं ठहराता, पर वे जो कर रहे हैं वह किसी राष्ट्रद्रोह से कम भी नही। जो लोग, और जो संस्थायें, आज अफ़ज़ल को फ़ाँसी से बचाने के लिए जी तोड़ कोशिश कर रही हैं, उनका कहना है -
• अफ़ज़ल भारतीय मुसलमानों की नज़र में एक हीरो है। उसे फ़ाँसी दी तो मुसलमानों को संभालना मुश्किल हो जायेगा। दंगे-फ़साद शुरू हो जायेंगे। जानें जायेंगी।
आइये जरा सोचें इस बात पर। भारतीय मुसलमान इस प्रजातंत्र में रहते हैं। उस प्रजातंत्र के संसद भवन पर हमला किया/कराया अफ़ज़ल ने। एक प्रकार से देखा जाये तो उसने चुनौती दी इस राष्ट्र में प्रजातंत्र को। उसने कुठाराघात किया प्रजातंत्र के जड़ पर - वह संसद भवन जो प्रजातंत्र का प्रतीक स्वरूप है। अब यदि इस देश के मुसलमान ऐसे आदमी को अपना हीरो मानते हैं तो वे सब क्या हैं? उन सब का अपना विश्वास इस प्रजातंत्र में कितना है, उतना ही जितना अफ़ज़ल का था? क्या इसका मतलब यह नहीं कि इस्लाम उनके लिए सर्वोपरी है, राष्ट्र नहीं? अर्थात वे इस राष्ट्र को अपना राष्ट्र तभी मानेंगे जब यह एक इस्लामी राष्ट्र बन जायेगा? क्या यही कारण है कि जब भारत-पाकिस्तान का क्रिकेट मैच होता है तो पाकिस्तानी टीम के जीतने पर वे पटाके फोड़ते हैं और भारतीय टीम के जीतने पर पटाके फोड़ते हुए हिन्दुओं पर तेज़ाब की बोतलें फेंकते हैं?1 क्या उनका यह आचरण भारत के प्रति अपनी निष्ठा का अभाव नहीं दर्शाता है? क्या ऐसा नहीं लगता कि भारत में जन्मे ये मुसलमान पाकिस्तान को अपना असली वतन मानते हैं क्योंकि भारत अभी तक दार-अल-इस्लाम नहीं बना है?
1 सम्पूर्ण विवरण के लिए मेरी अन्य पुस्तकें पढ़ें
• अफ़ज़ल के माता-पिता बूढ़े हैं, वे उसी पर निर्भरशील हैं।
सोच कर देखिये। क्या हमारे देश में ऐसे और कोई बूढ़े माता-पिता नहीं हैं जो अपने इकलौते पुत्र पर निर्भरशील हों, और वह पुत्र इस स्थिति में न हो कि अपने माता-पिता का भरण-पोषण कर सके? क्या अफ़ज़ल को स्वयं नहीं सोचना चाहिये था कि उसके माता-पिता का क्या होगा जब वह पकड़ा जायेगा या फिर पुलिस के साथ मुठभेड़ में मारा जायेगा? उन जवानों को जिन्हें अफ़ज़ल की वजह से अपनी जान गँवानी पड़ी क्या उनके भी बूढ़े माता-पिता नहीं थे? क्या अफ़ज़ल के हिमायतियों ने उनके बारे में कभी कोई आवाज़ उठायी? क्या वे सभी भारतीय मुसलमान अफ़ज़ल के बूढ़े माता-पिता के लिए कुछ नहीं कर सकते जो अफ़ज़ल को अपना हीरो मानते हैं, अफ़ज़ल की फ़ाँसी पर दंगे-फ़साद कर अनेक हिन्दुओं की जानें ले सकते हैं? क्या वे सभी अफ़ज़ल के बूढ़े माता-पिता के लिए कुछ नहीं कर सकते जिन्होंने अफ़ज़ल को इतना सारा धन दिया जिसकी सहायता से उसने इतना बड़ा प्लान बनाया और एक गद्दार की तरह अपने-ही देश के संसद भवन को उड़ाने की कोशिश की?
• अफ़ज़ल के बीवी-बच्चे उस पर निर्भरशील हैं।
जिन प्रश्नों को हमने आपके सामने अफ़ज़ल के बूढ़े माता-पिता के संदर्भ में रखा है, उन्हीं प्रश्नों को अफ़ज़ल के बीवी-बच्चे के संदर्भ में रख कर भी जरा सोच कर देखिये।
• अफ़ज़ल का बेटा डॉक्टर बनना चाहता है। अफ़ज़ल फाँसी पर लटक गया तो उसका बेटा डॉक्टर न बन पायेगा।
क्या खूब दिमाग की दौड़ लगायी है अफ़ज़ल के उन हिमायतियों ने। ये सब मिलकर,
मीडिया की सहायता से, हमारे जन-मानस को भावुक बनाने की हर संभव कोशिश कर रहे
हैं। बड़े-2 नाम हैं इन हिमायतियों के और हमारे मुस्लिम राष्ट्रपति का भी आशीर्वाद
है उनके साथ। और हमारे हिन्दू भाई जो अपने-आपको बड़ा दरिया-दिल मानते हैं, इस
बात पर गर्व-बोध करते हैं कि हमने एक नहीं, कई-कई मुस्लिम राष्ट्रपति बनाये
हैं। इस खोखली महानता का मूल्य भी हम हिन्दुओं को ही चुकाते रहना पड़ेगा।
जाने तुम क्यों यह भूल जाया करते हो कि केवल भला होना ही अपने-आप में पर्याप्त
नहीं है - भले होने के पीछे ठोस प्रयोजन होना चाहिये। पर मैं तुम्हें दोष दूँ
भी तो कैसे? तुम्हें दोष देना तो सबसे आसान है क्योंकि तुम उलट कर कुछ कहोगे
नहीं। यही तो कारण है कि हर कोई केवल तुममें ही दोष देखता है जब वह कहता है
कि दोष "हिन्दू" का है। हिन्दू को दोषी बनाने का जिम्मेदार कौन है? उसकी (वास्तव
में "उनकी") ओर तो कोई उंगली उठाता नहीं, क्योंकि वे सभी अपने-आपमें "बड़े-बड़े
नाम" हैं। उनकी ओर उंगली उठाओ तो उनके लाखों हिन्दू अनुयायी तुम पर टूट पड़ेंगे
- "कैसे हिम्मत की तुमने उनके बारे में कहने के लिए? वे महान हैं। तुममे समझ
नहीं उनकी महानता को समझने की। इसलिए तुम उन पर उंगली उठाते हो"।
हम हिन्दुओं में ये जो महान लोग हैं न, वे हिन्दुओं की आज की मानसिक नपुंसकता के लिए जिम्मेदार हैं। फिर कभी हम मिलेंगे, किसी दूसरे पुस्तक में, तो आपको बतायेंगे उन महान लोंगो के बारे में। आज नहीं क्योंकि उनकी महानता अपने-आपमें इतनी बड़ी है कि इतने छोटे-से जगह पर उनकी महानता का मूल्यांकन करना संभव न होगा। उन सब पर उंगली उठाते समय मुझे ढेर सारे उदाहरण देने होंगे, उनके अनेक अवसरों पर किये गये विभिन्न आचरणों से, एवं ढेर सारी व्याख्या के साथ। इसमें व्याख्या का स्थान बड़ा महत्वपूर्ण होगा क्योंकि सत्य का एक पहलू हमेशा धुंध के पीछे छुपा होता है। उसे देखने के लिए पैनी नज़र की जरूरत होगी, और उस नजर को शब्दों की परिधि में बाँधकर आपके सामने प्रस्तुत करने के लिए व्याख्या की आवश्यकता होगी। उस व्याख्या के बिना वे बातें आपके दिमाग पर अटक कर रह जायेंगी, आपके दिल तक न उतर पायेंगी।
हाँ तो वापस चलें अफ़ज़ल के बेटे के डॉक्टर न बन पाने वाली बात पर। अफ़ज़ल को छोड़ दिया तो कैसा डॉक्टर बनेगा वह? कहीं वैसा डॉक्टर तो नहीं जैसा बना था मुंबई के सैफ़ी अस्पताल का वह डॉक्टर तनवीर अन्सारी जिसकी कहानी हमने सुनायी है, आपको इसी पुस्तक में?
"आतंकवाद" शब्द के पीछे छुपी असलियत
क्या छुपा है इस शब्द के पीछे?
आतंकवाद वह शब्द है जो आपको याद दिलाता रहता है कि आतंकवादियों का उद्देश्य है आतंक फैलाना। क्या यह पूर्ण सत्य है? नहीं। तो फिर इस शब्द का प्रयोग क्यों किया जाता रहा है इतने व्यापक रूप से? कोई तो कारण होगा? क्या है वह कारण?
और यदि यह पूर्ण सत्य नहीं, तो पूर्ण सत्य क्या है? क्यों, अब तक उस पूर्ण
सत्य को छुपाया जाता रहा है? किसके, या किन-किन के स्वार्थों की पूर्ति होती
इससे? किस प्रकार के स्वार्थ थे वे? धन एवं सत्ता के लोभ तक सीमित, या फिर
कहीं छुपा था राष्ट्र-द्रोह की दबी भावना इन सब के पीछे?
क्या समाधान है इसका?
इन सबका समाधान कहाँ है? जो समाधान आपकी नज़रों के सामने हैं, क्या वे स्थायी होंगे, या फिर सतही तौर पर समाधान प्रस्तुत करते हुए नज़र आयेंगे? और, जब काफी समय बीत चुका होगा ~ यहाँ तक कि पीढ़ियाँ भी बदल चुकी होंगी, आप पायेंगे कि जहाँ से चले थे ~ उसके आस-पास ही मंडरा रहे हैं हम।
समय के साथ आपकी ऊर्जा शिथिल पड़ चुकी होगी, नई पीढ़ी जिनके हाथों में तब बागडोर होगी उनकी सोच बदल चुकी होगी, पर कोई स्थायी समाधान दूर-दूर तक नज़र न आयेगा। तब यदि आप एक कोने में जाकर बैठेंगे, एवं अपने-आपसे एक प्रश्न पूछेंगे, और पूरी ईमानदारी के साथ आप, अपने-आपको उसका उत्तर देंगे, तो बस एक ही जवाब सामने आयेगा।
वह यह कि - हमने प्रयोग किये इस राष्ट्र को एक प्रयोगशाला समझ कर, हम उनमें से एक थे जिनके हाथ में बागडोर थी ~ चाहे वह रही हो सत्ता की बागडोर, या फिर राष्ट्र के दिग्दर्शकों के रूप में बुद्धिजीवियों की जमात, या फिर राष्ट्र की सोच को तोड़ने-मड़ोरने वाले मीडिया की बागडोर ~ हम सभी ने अपने-अपने भिन्न-भिन्न स्वार्थों की पूर्ति हेतु राष्ट्र के हितों की बलि दी, एवं जनसाधारण की तुष्टि हेतु प्रयोग पर प्रयोग करते रहे ~ कुछ उसी प्रकार से जैसे आज के वैज्ञानिक अपने प्रयोगशाला में जीवित चूहों को प्रयोग का माध्यम बना कर उन पर प्रयोग करते हैं, वैसे ही जीवित जनसाधारण एवं उनकी समष्टि के रूप में राष्ट्र को माध्यम बना कर हम सभी अपने-अपने प्रयोग करते रहे। अब चूँकि हमारे दिन लद चुके हैं, अब बारी है अगली पीढ़ी की जो अपनी शिक्षा एवं उससे मिली हुई जीवन मूल्यों के आधार पर नये प्रयोग करेंगे एवं करते रहेंगे, हमारी तरह इस राष्ट्र को एवं उसमें बसने वाले लोगों को अपने प्रयोगों का माध्यम बना कर। इस प्रकार यह खेल-तमाशा चलता रहेगा, तब तक, जब तक इन तत्वों का समूल निर्मूलन न हो जाता।
यह विषय आज इतनी जटिल बन चुकी है कि समाधान की ओर संकेत तो किया जा सकता है ~ इस और इसी प्रकार की छोटी-छोटी पुस्तिकाओं के माध्यम से ~ पर उस समाधान के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा नहीं समायी जा सकती इन थोड़े से पन्नों मे। समाधान के विभिन्न पहलुओं पर दृष्टिपात करने से पहले, समस्या के विभिन्न पहलुओं पर गम्भीरता से नजर डालनी होगी, एवं उनकी जटिलता की समझ पैदा करनी होगी। केवल उसके पश्चात समाधान पर चर्चा उचित होगी।
यह स्पष्टीकरण आवश्यक था, उन ज्ञानी-गुणी जनों के लिए जो यह मान बैठे हैं कि जो कुछ उन्हें दृष्टिगोचर होता है ~ जो कुछ वे पढ़ते, सुनते, देखते, सोचते, समझते हैं ~ वह सभी समस्या पर पर्याप्त आलोकपात करते हैं, एवं उन्हें समस्या की पर्याप्त समझ है, अतः अब यदि किसी बात की आवश्यकता है तो समाधान खोजने की, एवं उस पर अमल करने की। उनमें से कुछ के पास तो समाधान का नुस्खा तैयार भी है। खैर इनसे उलझने की कोई इच्छा नहीं है मुझमें क्योंकि यह मेरे सीमित समय का दुरुपयोग होगा।
आतंकवाद को शह दी किसने?
जिन्होंने इतिहास से कुछ न सीखा
राजनीति एवं मीडिया के, वे धुरंधर कौन थे, जिन्होंने इतिहास से कुछ न सीखा?
वे कौन थे, इतने मूर्ख, जिन्होंने एक नये इतिहास की रचना का ख्वाब देखा?
वे सभी प्रयोग
वे कौन थे, जिन्होंने "समझौता एक्सप्रेस" चलाने के नाम पर, आईएसआई एजेन्टों के लिए, हमारे देश में बेधड़क घुसने का, रास्ता खोल दिया?
वे कौन थे, जिन्होंने इसे समचार पत्रों के माध्यम से एक बहुत बड़ी उपलब्धि बता कर छापा?
बलि का बकरा
वे कौन थे, जिन्होंने इन चीजों की ओर उंगली उठाने के बजाय, केवल हमारी पुलिस को दोष देना उचित समझा - कि पुलिस सुरक्षा की व्यवस्था न कर पायी?
वे कौन थे, जिन्होंने समाचार पत्रों में पुलिस को बार-बार निकम्मा बता कर, पुलिस के मनोबल को क्षीण बनाने में, बड़ा योगदान दिया?
राष्ट्र द्रोह अपने अनोखे अंदाज में
वे कौन थे जिन्होंने यह सब करते समय यह नहीं समझा कि उनके ये कार्य किसी राष्ट्र द्रोह से कम न थे?
वे कौन थे जिन्होंने बार-बार मुशर्रफ़ के इरादों को पहचानने से इंकार किया?
राष्ट्र की बलि क्रिकेट के नाम पर
वे कौन थे2 जिन्होंने मुशर्रफ़ को किक्रेट के बहाने दो दर्जन आईएसआई एजेन्टों को साथ लाने का अवसर दिया एवं वीज़ा समाप्त हो जाने के बाद भी उन्हें यहीं रह3 जाने दिया?
वे कौन थे4 जिन्होंने उन एजेन्टों को पनाह दी, खाना दिया, देश के महत्वपूर्ण स्थानों पर ले जा कर यह दिखाया कि कहाँ-कहाँ कब-कब वार करना उचित होगा?
2 क्या
वह अटल बिहारी बाजपाई नहीं थे? माना कि कॉन्ग्रेस बीजेपी की तुलना में बहुत
अधिक हिन्दू-द्रोही है पर वे लोग जो आम हिन्दू को दोष देते हैं कि हिन्दू वोट
बँटा हुआ है क्या उनकी समझ में यह बात नहीं आती कि हिन्दू कैसे बीजेपी पर पूरा
विश्वास कर ले जिसने हिन्दू को बार-बार धोखा दिया है चाहे वह राम मन्दिर के
संदर्भ में हो या फिर हज-सबसिडी बढ़ाने के विषय में या फिर राहुल गान्धी को
बचाने में जब अमरीकी सरकार ने उसे रंगे हाथों भारी रकम कैश डॉलर के साथ पकड़ा।
इसी बाजपेयी ने न केवल उसे बचाया बल्कि हिन्दू से यह बात छुपाई भी और इस प्रकर
कॉन्ग्रेस के हाथ मजबूत कर आज हिन्दू के लिए इतनी बड़ी समस्या खड़ी की। बाजपेयी
के कारनामों की चर्चा जितनी कम ही की जाये तो अच्छा है क्योंकि आज के हिन्दू
बुद्धिजीवी को सत्य से लगाव कम और सत्ता से अधिक है। उन्हें यह समझ में नहीं
आता कि असत्य के आधार पर एक "स्थायी" हिन्दू राष्ट्र की स्थापना नहीं हो सकती।
ऐसा राष्ट्र कभी-भी हिन्दू-द्रोहियों के हाथ में फिसल कर जा पहुँचेगा और आप
देखते ही रह जायेंगे। यह याद रखें कि आधी-अधूरी ईमानदारी कभी किसी काम की नहीं
होती। 3-3-2009
3 मुशर्रफ़
के साथ वे वापस नहीं गये क्योंकि वे क्रिकेट के बजाय भारत-दर्शन के बहाने जाने
कहाँ खो गए
4 क्या
वे इसी भारत के नागरिक मुसलमान नहीं थे जिन्हें हम बड़े गर्व से "अपना" कहते
हैं? 3-3-2009
कलम की शक्ति बिक गई पेट्रो-डॉलर के भाव में
वे कौन थे, जिन्होंने बार-बार समाचार पत्रों के माध्यम से, इस बात का खूब प्रचार किया - कि आम मुसलमान कितना सीधा-सादा है, और पुलिस (11-7-2006 के बम विस्फोट के बाद) उन्हें नाहक ही परेशान कर रही है?
वे कौन थे, जो कोई भी सुराग हाथ लगते ही, तुरंत उसे एक आम खबर बना देने की कोशिश करते, इस बात की परवाह किए बिना - कि शैतान चौकन्ने हो जायेंगे, और पुलिस का काम, और भी मुश्किल हो जायेगा?
इतिहास एक दिन गवाह बनेगा
वे सब, क्या यह नहीं समझ रहे थे, कि उनके ये करतब, किसी राष्ट्र द्रोह से कम नहीं?
जिस इतिहास से इन लोगों ने कोई सीख न ली, वही इतिहास एक दिन तय करेगा, कि असली गद्दार कौन था?
गद्दार कौन?
ये स्वार्थी राजनेता?
या, यह बिकी हुई मीडिया?
या वे, जो सरहद पार से आये, और यहाँ पनाह ली, ताकि स्थिति का अध्ययन कर एक सोची समझी योजना के अनुसार, हिन्दुओं का कत्ले-आम कर सकें?
या फिर वे, जो रहते तो इस धरती पर हैं, नमक तो इसका खाते हैं, पर इसे इस्लामी राष्ट्र बनाने के सपने देखते हैं, और उन्हें पनाह देते हैं जो सरहद पार से आते हैं?
या वे, जो अपने बच्चों को मदरसों में भेजते हैं, ताकि उनके बच्चे बड़े होकर इस्लाम के बताये हुए राह पर चल कर, हिन्दुओं का कत्ले-आम कर सकें?
या फिर वे राजनेता, जो हिंदू मंदिरों को सरकारी कब्जे में लेकर, हिंदुओं द्वारा मंदिरों में चढ़ावे को, सरकारी खजाना बना कर, उस धन को मदरसों और गिर्जा घरों को, सरकारी दान स्वरूप दे देते हैं? (विवरण अन्य पुस्तकों में)
या फिर वे राजनेता, एवं वे मीडिया दिग्गज, जो बार-बार हिंदू पाठकों का ब्रेन-वॉश करते नहीं थकते कि आतंकवादी का कोई मज़हब नहीं होता।
क्या वास्तव में आतंकवादी का कोई मज़हब नहीं होता?
कुरआन सूरा 9 अत-तौबा आयत 123 - मुसलमानों, तुम्हारे आस-पास जो भी गैर-मुसलमान बसते हैं, हमला बोल दो उन पर, उन्हें जताओ कि तुम कितने कठोर हो।
कुरआन सूरा 9 अत-तौबा आयत 7 - अल्लाह और उनके पैगंबर मूर्ति पूजकोंं को विश्वास की दृष्टि से नहीं देखते।
कुरआन सूरा 9 अत-तौबा आयत 2-3 - अल्लाह एवं उनके पैगंबर मुक्त हैं, किसी भी दायित्व से, मूर्ति पूजकों के प्रति... उन्हें ऐसी सजा दो कि वे शोक ग्रस्त हो जायें।
कुरआन सूरा 60 अल-मुम्तहना आयत 4 - शत्रुता एवं घृणा ही रहेगी हमारे बीच तब तक जब तक तुम केवल अल्लाह के बंदे न बन जाओ।
कुरआन सूरा 8 अल-अनफ़ाल आयत 39 - तब तक उन पर हमला करते रहो जब तक मूर्ति पूजा का नामों-निशाँ न मिट जाये और सब अल्लाह के मज़हब के अधीन न हो जायें।
कुरआन सूरा 22 अल-हज़्ज़ आयत 19-22 - आग के परिधान (वस्त्र) बनाये गए हैं उनके लिए जो इस्लाम को नहीं अपनाते। उबलता हुआ पानी उनके सर पर डाला जायेगा ताकि उनकी चमड़ी भी पिघल जाए और वह सब भी पिघल जाए जो उनके पेट में है (अँतड़ियाँ भी)। उन पर कोड़े - आग में तपते हुए लाल लोहे के कोड़े - बरसाये जाएँ।
कुरआन सूरा 69 अल-हाक्का आयत 30-33 - उसे पकड़ो और उसे बाँधो। जलाओ उसको नर्ककी आग में और उसके बाद बाँधो उसे एक जंजीर से, जो हो सत्तर क्युबिट लंबा, क्योंकि उसने अल्लाह को नहीं स्वीकारा, जो हैं सबसे ऊपर।
कुरआन सूरा 2 अल-बकरा आयत 193 - तब तक उनसे लड़ते रहो, जब तक मूर्ति पूजा बिल्कुल खत्म न हो जाये और अल्लाह का मज़हब सबपर राज न करे।
कुरआन सूरा 4 अन-निसा आयत 56 - वे जो अल्लाह के आदेश को नहीं मानते हैं, हम उन्हें आग में झोंक देंगे और जब उनकी चमड़ी पिघल जाए तो हम उनकी जगह नई चमड़ियाँ डाल देंगे ताकि उन्हें स्वाद मिले यंत्रणा का। अल्लाह सबसे अधिक शक्तिमान हैं एवं विवेक पूर्ण हैं।
कुरआन सूरा 33 अल-अहज़ाब आयत 36 - जब अल्लाह एवं उसके पैगंबर ने निर्णय कर लिया है, किसी भी बात पर, तो किसी मुसलमान मर्द या औरत को यह हक नहीं, कि वह उस बारे में, कुछ भी कह सके।
कुरआन सूरा 9 अत-तौबा आयत 39 - ऐ मुसलमानों, अगर तुम युद्ध न करो तो अल्लाह तुम्हें कड़ी सजा देगा और तुम्हारी जगह पर दूसरे आदमी को लायेगा।
कुरआन सूरा 2 अल-बकरा आयत 216 - लड़ना तुम्हारी मजबूरी है, चाहे तुम कितना भी नापसंद करो इसे।
कुरआन सूरा 9 अत-तौबा आयत 73 ओ पैगंबर जो मुझमें विश्वास नहीं करते, उनसे युद्ध छेड़ो। उन पर कठोर बनो। उनका अंतिम ठिकाना नरक है, एक दुर्भाग्य पूर्ण यात्रा का अंतिम चरण।
कुरआन सूरा 66 अत-तहरीम आयत 9 - ओ पैगंबर! जो मुझमें विश्वास नहीं करते, उन पर हमला करो और उनके साथ कठोरता से पेश आओ। नर्कउनका निवास होगा, दुर्भाग्य पूर्ण उनका भाग्य होगा।
कुरआन सूरा 8 अल-अनफ़ाल आयत 12 - जो मेरे अनुयायी नहीं हैं, मैं उनके दिलों में दहशत भर दूँगा। उनके सर धड़ से अलग कर दो, उनके हाथ और पाँंव को इस कदर जखमी कर दो कि वे किसी भी काम के लायक न रह जायें।
कुरआन सूरा 48 अल-फ़त्ह आयत 29 मुहम्मद अल्लाह के पैगंबर हैं जो उनका अनुसरण करते हैं वे गैर-मुसलमानों के प्रति बेरहम होते हैं पर एक दूसरे (मुसलमानों) के प्रति दयालु होते हैं।
स्रोत - (1) कुरआन मजीद (अरबी-अंग्रेज़ी-हिंदी) मु. मा. पिक्थाल एवं मुहम्मद फ़ारुक खाँ, मक्तबा अल-हसनात (2) The Calcutta Qur'an Petition edited by Sita Ram Goel (3) कुरआन मुसलमानों को क्या सिखाता है और इसे जानना हम हिन्दुओं के लिए कितना आवश्यक है (व्याख्या तथा विश्लेषण सहित) मानोज रखित
ध्यान दें सूरा क्रमांकों पर। सूरा को अध्याय के रूप में समझें। आप यह पायेंगे
कि जो संदेश आरम्भिक अध्यायों में दिये गये हैं, वही संदेश मध्य के, एवं अंत
के अध्यायों में भी हैं, थोड़े से शब्दों के फेर-बदल के साथ। यहाँ तो मैंने
बस थोड़े से नमूने पेश किये हैं, कुरआन उलट-पुलट कर देखेंगे तो आपको इनकी भरमार
मिलेगी।
• ऐसा क्यों? इतनी पुनरावृत्ति
क्यों? ताकि कहीं से भी आप कुरआन को पढ़ने लगें - चाहे शुरू से, या मध्य से,
या फिर अन्त की तरफ - आपको वही संदेश मिले। और जब एक ही बात बार-बार दोहरायी
जाती है तो क्या होता है? वह बात दिमाग में बैठ जाती है - सिमेंट की तरह पक्की
हो जाती है - आपकी सोच, आपकी समझ, आपके विवेक, आपकी भावनाओं, आपकी संवेदना
- आपके पूरे अस्तित्व का अभिन्न अंग बन जाती है।
बचपन से सिखाया जाता है उन्हें
"जब मैं अपने मुसलमान मित्रों के घर जाता तो उनके छोटे बच्चे मुझसे पूछते - अंकल, क्या आप काफ़िर हैं?" प्रोफेसर रमेश दुदानी 19-9-2006
प्रोफेसर रमेश दुदानी ने अपना यह व्यक्तिगत अनुभव मुझे सुनाया। उन्होंने स्वयं अध्यापन के क्षेत्र में सारा जीवन बिताया, एवं अब सेवा-निवृत्त हो चुके हैं। अब आप सोचिए - इन छोटे बच्चों को भी समझ है कि काफ़िर क्या होता है। ये बच्चे जब बड़े होंगे, एवं रोज कुरआन स्वयं पढ़ेंगे, तो वे यह भी जानेंगे कि हम काफ़िरों के साथ क्या सलूक किया जाना चाहिए।
काफ़िरों के साथ क्या सलूक किया जाना चाहिए?
कुरआन 9.123, 29, 5 निश्चित रूप से सबसे खराब पशु हैं वे जो खुदा को नहीं पूजते। अरे तुम सब जो खुदा के बन्दे हो! लड़ों उन काफिरों से और उन पर अपनी कठोरता जताओ। अपमानित करो उन्हें इतना कि वे कर दें और तुम्हारी प्रशंसा करें। और जब तुम्हारे पवित्र महीना (रमज़ान का महीना) खत्म हो जाये, तो मूर्तिपूजकों का हिंसा पूर्वक कत्ल कर डालो, जहाँ भी उन्हें पाओ, और उन्हें बंदी बना लो, और चुपचाप प्रतीक्षा करो उनके लिए और हर स्थान पर घात लगाये बैठे रहो। स्रोत - A Hindu View of the World - Essays in the intellectual Kshatriya Tradition, N S Rajaram
क्या आपने समझा कि कुरआन के अनुसार आपकी औकात क्या है? एक इंसान की नहीं बल्कि एक पशु की। वह भी महज एक पशु की नहीं बल्कि सबसे बदतर पशु की।
मुसलमानों को कुरआन केवल यही नहीं बताता है कि उन्हें मूर्तिपूजक हिंदुओं के साथ "क्या" करना है। कुरआन में इस बात का भी विधान है कि "कैसे" करना है। उदाहरण के लिए मुसलमानों को छुप कर घात लगाये बैठे रहना है, और तब हमला करना है जब हिंदू अप्रस्तुत हों, वहाँ जहाँ वह आशा न करे हमले की। आपकी याददाश्त तो शायद ताजी होगी, ज्यादा समय नहीं बीता है, 11 जुलाई 2006, ट्रेनों में बम रखे गए पहले दर्जे के डब्बों में, उस समय जिसे "पीक आवर्स" कहते हैं, जब लोग दिन भर के काम के बाद थके-हारे घर लौटने लगते हैं और ट्रेन खचा-खच भरी रहती है, तिल धरने को जगह नहीं होती।
यह भी हिदायत दी गई है कि कत्ल भी करो तो हिंसा पूर्वक। निर्जन स्थानों
पर हिंदू की लाश पायी जाती है और उसका गला कटा हुआ होता है, जैसे जानवर को
हलाल किया जाता है। शायद आप जानते हों कि हलाल करते वक्त एक बार में गर्दन
काट कर अलग नहीं कर दी जाती है। एक ही वार में, सर धड़ से अलग कर दिया गया,
तो आदमी तुरंत मर जायेगा। उसे ज्यादा तकलीफ नहीं होगी। जानवरों को जब काटते
हैं तो यह विधि हराम मानी जाती है, अर्थात वह माँस अपवित्र हो जाता है। इसलिए
जब मुर्गी को काटते हैं, या फिर बकरे को, तो यह जरूरी है कि उसके गर्दन को
धीरे-धीरे काटा जाये, या थोड़ा सा काट कर छोड़ दिया जाये, तभी वह गोश्त हलाल
होता है, पवित्र माना जाता है, और उसे खाया जा सकता है। अधिक जानकारी के लिए
इंटरनेट पर सर्च करें। आपको कुरआन की आयतें भी मिल जायेंगी और उन पर टिप्पणियाँ
भी, जो प्रस्तुत की गई हैं इस्लाम के जाने-माने विद्वानों के द्वारा।
आपकी गौ माता का भी यही हाल होता है, बेचारी तड़प-तड़प कर मरती होगी। कुरआन के
अनुसार खून का एक कतरा भी शरीर के अंदर नहीं रह जाना चाहिए। तभी यह गोश्त पाक
है, अन्यथा नापाक है। इस कारण गले को धीरे-धीरे काटना होता है ताकि खून रिसता
रहे और सारा खून धीरे-धीरे शरीर से निकल जाये। सारा खून धीरे-धीरे रिसते हुए
निकल जाना आवश्यक है, अन्यथा वह खून भी माँस के साथ पकने के बाद हमारे पेट
में जायेगा। खून का सेवन अपवित्र माना गया है अतः यह इस्लाम को यह स्वीकार्य
नहीं। पशु का धीरे-धीरे मरना आवश्यक है क्योंकि यदि तुरंत मर जाये तो काफी
खून शरीर के अंदर ही रह जाता है। उसे अच्छी तरह धोकर भी आप पूरी तरह गोश्त
से अलग नहीं कर सकते क्योंकि एक समय के पश्चात शरीर के अंदर का बचा हुआ खून,
एक जीवित शरीर के लाल ताजे खून की तरह नहीं रह जाता।
खैर, इन सब बारीकियों में जाये बिना एक बार सोच कर देखिए, एक सीधा सा प्रश्न - कितनी तकलीफ होती होगी उस मुर्गी, बकरे या गाय को जिसके गले को थोड़ा सा काट दिया जाये ताकि खून धीरे-धीरे रिसता रहे और उसे तुरंत मरने न दिया जाये। आप चाहे इसे होते हुए न देखें पर खाते तो उसी बकरे या फिर मुर्गी का गोश्त न? और जब हिन्दू के गले पर छुरी चलती है तो वह भी इसी प्रकार से। पर इन सबसे आपको क्या फ़रक पड़ता है? आप तब तक प्रतीक्षा करें जब तक आपका अपना कोई हलाल नहीं होता।
आधुनिक हिंदू
आज तो हिन्दुओं में भी लोग गाय का माँस खाने लगे हैं। संजीव कुमार शास्त्री ने मुझे बताया कि पिछले चुनावों के दौरान मध्य प्रदेश के एक शहर में (मैं नाम भूल गया हूँ) चारों तरफ चुनावी प्रचार के बैनर चिपके हुए थे "गाय हमारी माता है, अटल बिहारी खाता है"। युवावस्था में, सुनते हैं, कि वह बड़ा ही भला आदमी हुआ करता था जो अपने कपड़े खुद धोता था। पर बड़ा नेता बनने के बाद सम्भवतः उसने बड़े नेताओं के रहन-सहन भी अपना लिए। वैसे यह तो जानी-मानी बात है कि अटल बिहारी नेहरु-वादी नेता था और नेहरु के चरित्र के बारे में आशा है कि आप बड़ी खुशफ़हमियाँ अपने दिल में नहीं पालते होंगे। भाई, संगत का असर तो होता ही है, चाहे वह संगत साथ-साथ उठने-बैठने का हो, या फिर वैचारिक एवं सैद्धांतिक स्तर पर हो। अब अटल बिहारी चाहे तथाकथित हिंदू पार्टी भाजपा का नेता रहा हो, पर इतना तो अवश्य है कि वह हृदय से सच्चा हिंदू नहीं रह गया था।
वर्ण-संकर संस्कृति की उपज
यही हालत है आज के अनेक हिंदुओं की। हिंदू घरों में जन्में, ईसाई-अंग्रेज़ी शिक्षा-पद्धति में पले-बड़े, और मर्क्ससिस्ट सोच में अभ्यस्त हुए, हमारे नेता, जर्नलिस्ट एवं बुद्धिजीवी, मदिरा के साथ गौ-माँस के सेवन मे बड़ी रुचि लेने लगे हैं, क्योंकि धर्म का स्थान उनकी आधुनिक जीवन-प्रणाली में सबसे नीचे होता है, एवं गौ-माँस को वे नरम, एवं बड़ा स्वादिष्ट, पाते हैं। वैसे कहीं आप यह न पूछने लगें कि अटल बिहारी को तो ज्यादा अंग्रेज़ी बोलनी नहीं आती थी और न तो बहुत सारे नेताओं, जर्नलिस्टों, बुद्धिजीवियों को आती है, तो फिर अंग्रेज़ी शिक्षा-पद्धति को क्यों खामख्वाह यहाँ घसीट रहे हैं? देखिए, ईसाई-अंग्रेज़ी संस्कृति से प्रभावित होने के लिए अंग्रेज़ी बोलने की योग्यता का होना आवश्यक नहीं है, न ही ईसाई धर्म के बारे में कुछ जानने का। पिछले छः पीढ़ियों के दौरान हमारे आस-पास एवं चारों तरफ का वातावरण ही कुछ ऐसा बन चुका है कि यह आपकी सोच को प्रभावित करता रहता है और आपको इसका अहसास तक नहीं होता है।
बचपन से तैयार किया जाता है उनकी मानसिकता को
अब वापस चलें। हलाल के अन्य पहलुओं पर भी जरा नजर डाल लें। कुछ समय पहले मैंने अंग्रेज़ी अखबार में एक बड़ी सी फोटो देखी थी। शायद बकरीद का समय था और स्थान हैदराबाद था। राजस्थान से ऊँट मँगाया गया था हलाल के लिए। ऊँट से ज्यादा गोश्त मिलता है और ऊँट के गोश्त की डिमांड कम होने के कारण सस्ता गिरता होगा। सार्वजनिक बँटवारे के लिए यह उपयुक्त होता होगा। शायद ये कारण रहे होंगे इतनी दूर से ऊँट मँगाने का।
उस फोटो में ऊँट पड़ा हुआ था और शायद अपनी मौत की प्रतीक्षा कर रहा था। मौत जल्द आ जाये, इसकी मिन्नत भी कर रहा होगा मन ही मन खुदा से। इतना सोचने की योग्यता तो ऊँट में होती ही होगी। ऊँट के चारों ओर काफी भीड़ जमी हुई थी। लोग देख रहे थे, हलाल किए हुए उस ऊँट को, उसका खून रिसते हुए, उसे धीरे-धीरे मरते हुए। शायद वे भी सोच रहे थे कि ऊँट जल्दी मरे। पर उनका उद्देश्य अलग रहा होगा। उन्हें इस बात की प्रतीक्षा रही होगी कि कब इतना बड़ा ऊँट मरेगा और उसका गोश्त हम सबमें बँटेगा।
खैर जो भी हो, पर मेरी नजर जिस बात पर अटकी वह कुछ और ही थी। उस भीड़ में बहुत सारे बच्चे भी थे। उम्र कुछ आठ, दस, बारह वर्ष की रही होगी। बच्चे बड़ों से लम्बे कम होते हैं इसलिए वे पहली पंक्ति में थे और उन्हें सारा नज़ारा काफी अच्छी तरह से दिख रहा था। मुझे लगा कि उन्हें अच्छी ट्रेनिंग मिल रही है। बचपन से ही उन्हें आदत पड़ती जा रही है। प्रत्येक वर्ष जानवरों को इस प्रकार तड़पते हुए देखने को मिलता है उन्हें। उनका "जिगर" मजबूत होता जा रहा है। खून का खौफ़ उन्हें नहीं रहेगा। मदरसों से कुरआन की अच्छी तालीम पाकर, किशोरावस्था तक पहुँचते, वे अपने आपको पूरी तरह से तैयार पायेंगे। तब अगर काफिरों का हलाल करना हो तो वे न हिचकिचायेंगे।
किसी निर्जन स्थान पर एक हिन्दू का मृत अवस्था में पाया जाना, उसका गला इसी ढंग से कटा हुआ होना, यदि आम बात नहीं तो दुर्लभ बात भी नहीं। उस हलाल की प्रक्रिया का वीडियो टेप का सऊदी अरब भेजा जाना और नियत रकम पारितोषिक के रूप में मिलना, मेरी कल्पना की उपज नहीं है। जो इसे करते हैं, वे केवल इसलिए नहीं करते हैं कि उन्हें इससे धन मिलता है। धन तो बाद में आता है और मेहनताना नहीं बल्कि पारितोषिक के रूप में। यदि पकड़े गये तो वह धन काम आयेगा, अपनी पैरवी के लिए और अपने परिवार के लिए भी। अव्वल तो वे इसलिए करते हैं कि वे इस प्रकार से अपने अल्लाह की मदद कर रहे हैं, और साथ ही साथ अपने लिए जन्नत की सीट बुक करवा रहे हैं, और जन्नत की हूरों के झुण्ड पर अपना दावा कायम कर रहे हैं।
अब सवाल आपके मन में उठेगा कि ऐसी खबरें आप तक पहुँचती क्यों नहीं, कहीं ये मनगढंत बातें तो नहीं हैं? हमारी मीडिया की एक बड़ी विशेषता है। गुजरात की बात को लेकर बरसों बीत गये पर आज भी हर महीने कम से कम तीन-चार बार गुजरात के दंगों की बात को उछाला जाता है, जबकि गोधरा (जहाँ हिन्दू जिन्दा जलाये गए) का कहीं कोई जिक्र तक नहीं होता। बाबरी ढाँचे को बाबरी मस्जिद का नाम देकर 1992 की घटना को आज भी समय-समय पर उछाला जाता है पर पाकिस्तान, बांग्लादेश में कितने वास्तविक मंदिर तोड़े गये, 1992 के पहले एवं बाद में, उनका कोई जिक्र तक नहीं होता। हमारी मीडिया के चरित्र को कुछ अच्छी तरह समझना चाहें तो मेरी अन्य पुस्तकें पढ़ें।
एक और सुझाव। हिंदू वॉइस मासिक पत्रिका कभी-कभी समय निकाल कर पढ़ लिया कीजिए। कम से कम ये खबरें आपसे पूरी तरह छुपी तो न रहेंगी। अंग्रेज़ी अखबार और उनके प्रांतीय भाषाओं के संस्करण और मार्क्ससिस्ट-कॉम्यूनिस्ट बुद्धिजीवियों के चंगुल में फँसी मीडिया तो आप तक ये खबरें पहुँचाने से रही। वे तो भगवान को मानते नहीं, अतएव उनका भगवान तो पैसा और यौन-लिप्सा होती है। पेट्रो-डॉलर और राजनीतिक अनुग्रह उन्हें हिंदुओं का नहीं बल्कि मुसलमानों का प्रवक्ता बनाती है। अतः उनसे अधिक आशा मत रखिए।
माना कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता
16 अप्रैल 2006 की बात है। चर्चगेट जाते समय मुम्बई के चर्नी रोड स्टेशन पर मैं एक दिन उतरा तो मुझे एक भव्य इमारत दिखी। वह कुछ सफेद रंग की सी थी और इतनी लम्बी थी कि प्लैटफॉर्म के एक सिरे से दूसरे सिरे तक चलता गया पर जैसे वह इमारत खत्म ही न हो। मैं अचम्भे में था क्योंकि 1979 में उसी स्टेशन पर मैं रोज उतरता था, पर उन दिनों ऐसी किसी इमारत का वहाँ नामों-निशा तक न हुआ करता था।
तीन-चार महीने और बीते। हिन्दूजा अस्पताल में मेरी भेंट एक 35-40 वर्षीय व्यक्ति से हुई जिनकी दाढ़ी बता रही थी कि वह मुसलमान हैं, अन्यथा उनकी सफारी देखकर मुझे इस बात का अंदाजा ही न होता। उस समय हम दोनों के पास एक ही काम था, इंतजार करना अनिश्चित समय तक। सो थोड़े वक्त की दोस्ती सी हो गई। बातों ही बातों में बहुत कुछ जानने को भी मिला। वह उर्दू का प्रयोग कम एवं परिष्कृत हिंदी का अधिक कर रहे थे।
उनसे मैने जाना कि चर्नी रोड की वह भव्य इमारत "सैफी अस्पताल" है। उनके गुरु का अस्पताल। यद्यपि वहाँ सारी सुविधायें मौजूद हैं पर उनके गुरु ने यह निर्देश दिया था कि ऑपरेशन हिंदूजा में ही कराई जाये। इस प्रकार मुझे उनसे मिलने का अवसर मिला।
उनसे मैने यह जाना कि उनके सैफ़ी पंथ का मकसद इंसानियत है और इस बात पर उनके गुरु बहुत जोर देते हैं। बहुत सारी बातें हुईं जिससे मुझे ऐसा लगा जैसे कि यह पंथ, और इसके गुरु की शिक्षा, आम इस्लाम से कुछ हट कर है। कुछ ऐसा लगा कि इसमें मानवता और प्रेम को बड़ा ही महत्व दिया जाता है।
इससे मुझे उत्सुकता हुई जानने की कि उनका धर्म ग्रन्थ क्या है। पूछने पर जाना कि उनका धर्मग्रंथ कुरआन ही है। तब मुझे यह जानने की भी उत्सुकता हुई कि क्या वह कुरआन रोज पढ़ते होंगे? यह प्रश्न मेरे मन में उठा क्योंकि मैं सोच रहा था कि ऐसा व्यक्ति जिसके मन में मानवता के प्रति इतना प्रेम है, वह शायद कुरआन पढ़ता नहीं होगा, जैसे अधिकांशतः हिन्दुओं ने गीता पढ़ी ही नहीं है। पर यहाँ भी मेरे लिए एक आश्चर्य प्रतीक्षा कर रहा था। उन्होंने मुझे बताया कि वह कुरआन रोज पढ़ते हैं। तो मेरे मन में एक प्रश्न और उठा - यदि उनके गुरु सदा मानवता और प्रेम की शिक्षा देते हैं तो उनकी शिक्षाओं का आधार कुरआन तो नहीं हो सकता। इसलिए पूछ बैठा कि क्या आपके गुरु अपनी शिक्षा कुरआन के आधार पर ही देते हैं? यहाँ भी एक आश्चर्य - उन्होंने बताया कि उनके गुरु शिक्षायें कुरआन से ही देते हैं।
तब मैंने उनकी एक छोटी सी परीक्षा लेनी चाही। मैने उनसे काफ़िर शब्द का अर्थ पूछा। उन्होंने मुझे बताया कि काफ़िर वह होता है जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता। यह सुना तो मुझे कुछ ऐसा लगा जैसे काफ़िर नास्तिक को कहते हैं। तो अगला प्रश्न मेरे मन था कि यदि "मैं" नास्तिक नहीं हूँ तो मैं काफ़िर नहीं। मैंने उन्हें बताया कि मैं तो ईश्वर में विश्वास करता हूँ, तो मैं काफ़िर नहीं हो सकता। फिर धीरे से मैने उन्हें बताया कि मैं तो मूर्ति-पूजक हूँ, तो फिर मेरे लिए क्या विधान है कुरआन में? अब उनके ललाट पर हल्का सा पसीना नजर आया मुझे।
हमारी बातें बड़ी ही शांति से, सौहार्द पूर्ण वातावरण में, भाई-चारा एवं अदब के साथ, दोस्ताना ढंग से चल रही थी। मुझमें इस्लाम के बारे में जानने की उत्कंठा देख वह अब तक मुझे बड़े प्रेम से सभी कुछ बता रहे थे। तो मैने भी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि मुझ मूर्ति-पूजक के लिए तो मृत्युदंड का विधान है कुरआन में।
यह बड़ी संकटमय घड़ी थी और इसके पहले कि वह जवाब दे पाते, अचानक किसी ने मुझे बुलाया जिसके लिए मुझे पीछे मुड़ना पड़ा। मुश्किल से दो मिनट बात करने के बाद मैं अपने नये मित्र की ओर मुड़ा जो मेरे प्रश्न का समाधान करने वाले थे। पर वह कहीं दिखाई नहीं दिए। मैंने हर तरफ नजर डाली पर वे न दिखे।
लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान क्यों होता है?
14 जुलाई 2006 समय 18:10:43 मेरे मोबाइल पर एक एसेमेस आया "हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता लेकिन हर आतंकवादी मुसलमान ही क्यों होता है?" सुरेन्द्र विष्ट
एक माह के पश्चात मैंने खबर पढ़ी एक आदरणीय डाक्टर साहब के बारे में
"मोमिनपुरा के लोग उन्हें "आदर से डाक्टर साहब" कहते हैं। "सैफी अस्पताल" में उनके साथी एवं उनके मरीज़ उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखते हैं जो मरीज़ों को चंगा कर देने की योग्यता रखते हैं, और जिन पर विश्वास किया जा सकता है। उनका नाम है डॉ तनवीर अन्सारी और उनकी उम्र है 32 वर्ष। यह व्यक्ति हैं एक ऐसे जेहादी जो शान्त दिमाग से कत्लेआम करने की योग्यता रखते हैं। वे "आतंकवादी रासायनिक हमलों" में बड़ी द्क्षता रखते हैं। लश्कर-ए-तय्येबा ने उनकी इस योग्यता का पूरा उपयोग नहीं किया, इस बात पर वह काफी नाराज़ हैं। वे नाराज़ हैं, पाकिस्तान में लश्कर के नेताओं से, जिन्होंने मुम्बई में आतंकवादी हमलों का संचालन किया - कारण उन्हें 11 जुलाई के बम विस्फोटों की योजना में अपने "रासायनिक हमलों" के द्वारा "आतंक फैलाने" एवं "मुम्बई के विनाश" में भूमिका निभाने का मौका नहीं दिया गया। उन्हें इस बात का भी दुःख है कि जब वे सन 2004 में पाकिस्तान के बहवलपुर में "रासायनिक युद्ध के प्रशिक्षण" के लिए गए तो उन्हें उच्चस्तरीय प्रशिक्षण नहीं दिया गया, जिसके लिए लश्कर के कुछ सक्रिय कर्मीयों को ही चुना गया।" विवरण - Hindustan Times 16-8-2006 p5
एक महीना और बीता कि मनमोहन ने सब का मन मोह लिया
इन सब के बावज़ूद अभी मनमोहन सिंह ने क्यूबा में जाकर मुशर्रफ से पुनः बड़ा प्रेमालाप किया और दोनों ने मिलकर कहा कि अब भारत और पाकिस्तान दोनों मिलकर आतंकवाद के विरुद्ध लड़ेंगे। इसे "हवाना स्टेटमेंट" कहा गया और मीडिया दिग्गजों ने बढ़ चढ़ कर इसका स्वागत किया। वह कहावत "सौ-सौ चूहे खाकर बिल्ली चली हज को" शायद मनमोहन ने कभी सुनी नहीं, अन्यथा वे जानते कि मुशर्रफ के लिए यह कहावत कितनी सठीक बैठती है। मनमोहन के पूर्वज अटल बिहारी हाजपाई ने कारगिल के बाद बस चलाई, मुशर्रफ को आगरा घुमाया और दोस्ती के अफसाने गाये, इस आस में कि नोबेल प्राइज़ (शांति दूत) मिल जाये, पर अंगूर खट्टे निकले। अब सभी के मन को मोहने वाले सिंह की नज़र कहाँ अटकी है, यह आप सोचें।
"हम लोग इस कोशिश में हैं कि पाकिस्तान के साथ दोस्ताना संपर्क बनाये रखें, इसके वावज़ूद कि वे भारत के विरुद्ध आतंकवादी हमलों में सहायता दे रहे हैं" सिंह (*प्रधान मंत्री ने कहा कॉन्ग्रेस के एक अधिवेशन (तिरुवन्नथापुरम) में, केरल के प्रादेशिक कॉन्ग्रेस कमिटी के मुख्यालय में, बुधवार को।" विवरण - Indiatimes, Times Of India, 1 Nov 2006, 1617 hrs IST, PTI
तब एक और खबर आयी
"लश्कर-ए-तय्येबा का शाब्दिक अर्थ है "निष्पाप पवित्र" लोगों की सेना। इसके पश्चिमी-भारत ईकाई के प्रमुख हैं फ़ैज़ल शेख। वे काम कर रहे थे, आज़म चीमा के निर्देशों के अनुसार। आज़म है लश्कर-ए-तय्येबा (भारत) के कमांडर। वह रहते हैं बहवलपुर "पाकिस्तान" में। विस्फोटों में प्रयोग किया गया आरडीएक्स भारत में लाया गया था एक "पाकिस्तानी टीम" के द्वारा मई 2006 में एवं बमों को तैयार किया गया था फ़ैज़ल की निगरानी में। पुलिस कमिश्नर ए एन रॉय ने कहा कि लश्कर-ए-तय्येबा एवं सिमी द्वारा इन विस्फोटों को मूर्त रूप दिया गया था।" विवरण - Hindustan Times 23-9-06 p3
क्या मनमोहन सिंह को ये बातें मालूम नहीं कि पाकिस्तान की क्या भूमिका रही है बम विस्फोटों के द्वारा हिंदुओं काकत्ले आम करवाने में? या फिर वह भी, हाजपाई की तरह, एक नये इतिहास की रचना करना चाहते हैं, इतिहास पढ़े बिना, और यदि पढ़ा है तो उसे समझे बिना।
साथ ही खुलासा आया "डाक्टर साहब" के झूठ की
"बैंगलोर के फोरेन्सिक साइन्सेस लैबोरटोरी में परीक्षण (नारकोऐनालिसिस भी) के पश्चात यूनानी "डॉक्टर तनवीर अन्सारी" ने अपना सारा जुर्म कबूल कर लिया।" विवरण - Hindustan Times 23-9-06 p 3
हाँ तो यही डॉ तनवीर अंसारी हैं जो "सैफी अस्पताल" में काम करते थे; (मोमिनपुरा के मुसलमान) मरीज़ों और सहकर्मियों में उनकी बड़ी साख थी, उन्हें बड़े इज़्ज़त की नज़रों से देखा जाता था। उन्हें पनाह भी मिली तो कहाँ, उसी "सैफी अस्पताल" में जिसके बारे में आपने थोड़ी ही देर पहले पढ़ा, मेरे कुछ समय के मित्र से, जिनसे मैं मिला था हिन्दुजा अस्पताल में।5
5 यह वही "सैफी अस्पताल" है जिसके गुरु कुरआन से मानवता और प्रेम की शिक्षा देते नहीं थकते। यह वही डॉ तनवीर अंसारी हैं जिन्हें बड़ा ही दुःख था कि उन्हें 11 जुलाई के बम विस्फोटों की योजना में अपने "रासायनिक हमलों" के द्वारा "आतंक फैलाने" एवं "मुम्बई के विनाश" में भूमिका निभाने का मौका नहीं दिया गया। और यह वही हिन्दुस्तान टाइम्स है जिसके किसी जर्नलिस्ट ने पँाच सप्ताह पहले डॉ तनवीर अंसारी के बारे में अपने सुन्दर रिपोर्ट के द्वारा पाठकों की सहानुभूति अर्जित करने की चेष्टा की थी इस आस से कि सच्चाई कभी सामने ही न आये। पर अंत में उसी तनवीर अन्सारी ने अपना सारा जुर्म कबूल कर ही लिया।
ये सारी छोटी-छोटी अलग-अलग बातें जिन्हें आप भी पढते हैं और मैं भी। फ़रक केवल इतना है कि आप उन अलग-अलग कड़ियों को जोड़ कर पूरी माला नहीं बना पाते और ये सारी कड़ियाँ अपने-आपमें कोई खास महत्व
की नहीं दिखती। बचपन में वह खेल तो आप सबने खेला ही होगा जिसे कहते हैं jigsaw puzzle (चित्र आदि के बेतरतीब कटे हुए टुकड़े जिन्हें जोड़कर पूरी तस्वीर बनानी होती है)। जब तक वे टुकड़े अलग-अलग रहते हैं तो अपने-आपमें कोई मायने नहीं रखते। जब उन्हें अपनी-अपनी सही जगहों पर बिठा दिया जाता है तो पूरी तस्वीर नजरों के सामने उभर आती है।
बचपन में आपने वह खेल बड़े चाव से खेला होगा पर अब नहीं खेलेंगे। अब तो वह आपको समय का दुरुपयोग लगेगा या फिर बचकाना बात लगेगी। कारण जानते हैं? बच्चे थे तो आपमें कौतुहल था, अब वह मिट चुका है। बचपना था तो चुनौती का अहसास भी था - तस्वीर को पूरा करने की चुनौती पर अब वह भी मिट चुका है। बच्चे थे तो आपमें अपनी जानकारी का दंभ भी नहीं था जो अब है। तब आप सबकुछ नहीं जानते थे और अब आप सबकुछ जानते हैं। आपने ढेरों किताबें पढ़ रखीं हैं। रोज अखबार पढ़ते हैं। न्यूज़ सुनते हैं या फिर देखते हैं। दोस्तों के साथ विचार-विमर्श करते हैं। महान-आत्मा से आप कितना-कुछ सीख भी चुके हैं - जैसे कि "बुरा मत कहो, बुरा मत सुनो" या फिर "ईश्वर-अल्लाह तेरे नाम, सबको सन्मति दे भगवान"। खैर, वापस चलें। 1-1-2008
इन्सानियत के मायने कुछ और ही हैं उनकी नज़रों में
वहाँ इन्सानियत की बडी-बडी बातें हुआ करती हैं। उनकी नजरों में उस इन्सानियत की परिभाषा कुछ और ही है। इन्सानियत के मायने उनके लिए वही नहीं है जो हम हिंदुओं के लिए है। उनके लिए इन्सानियत केवल खुदा के बन्दों मुसलमानों के लिए है, मूर्ति पूजक हिन्दू पशुओं के लिए नहीं (कुरआन 9.123,29,5)।
उनकी नज़रों में इन्सानियत है "वह कर्म" जो इस धरती से गैर-मुसलमानों का सफाया करता है। अतः जब ऐसे फ़रिश्तों को कानून सजा देने की कोशिश करता है तो उसके भाई-बन्द, उसके रिश्तेदार, उसे मुजरिम नहीं मानते।
इसीलिए तो अफ़ज़ल की बात राष्ट्रपति तक पहुँची
इन दिनों कितनी हाय-तोबा मची हुई है। अफजल के भाई-बन्दों में बड़ों-बड़ों का नाम है। उदाहरण के लिए द टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दुस्तान टाइम्स, ईसाई माँ की संतान अरुन्धती रॉय, कॉम्युनिस्ट-मार्क्ससिस्ट मेधा पाटकर और जाने ऐसे कितने "मेधावी" लोग जो सम्भवतः यह चाहते हैं कि ये सभी आतंकवादी फले-फूलें ताकि वे हिंदुओं का सफाया करते रहें। उन सब की नज़रों में हिंदू होना ज्यादा बड़ा पाप है, हिंदू का कत्ल किया जाना छोटा पाप है। इन सभी ने अपने-अपने ढंग से अफजल के लिए दया की याचना की है। और राष्ट्रपति, जो स्वयं एक मुसलमान हैं, उन्होंने तुरंत रोक लगा दी, फाँसी अभी नहीं होगी, 20 अक्टूबर को। सर्वोच्च न्यायालय ने कम से कम एक ढंग का निर्णय तो दिया पर उसमें भी टाँग अड़ाने वाले पैदा हो ही गये। जब तक बात अधर में लटकी रहेगी तब तक उसके हमदर्द कोई हवाई जहाज हाइजैक कर लेंगे और तब अफ़जल को छोड़ देना कितना आसान हो जायेगा।
यह बिकी हुई "सिक्युलर" मीडिया और ये बिके हुए "सिक्युलर" बुद्धिजीवी
मीडिया की बडी पहुँच होती है जन-मानस को दिशा देने में। ये बड़े प्रभावी होते हैं जनता की सोच को तोड़ने-मड़ोरने में। आज ही के अखबार को लीजिए। एक दर्द भरी दास्तान सुनाई कि अफ़ज़ल के बेटे ने खुद को फ़ाँसी लगाने की कोशिश की। फोटो वगैरह भी छपे और पृष्ठ का काफी सारा स्थान इस कहानी को दिया गया ताकि पाठकों की नजर न चूके, वे पढ़ें और उनके मन में करुणा का संचार हो। पर जो हिंदू जवान शहीद हो गए इन आतंकवादियों के साथ लड़ते हुए, उनके बच्चों की कोई फोटो नहीं, उनके दुःख की कोई कहानी नहीं। हो भी तो कैसे? समाचार पत्र के उस बहुमूल्य स्थान की कीमत अदा करना तो शहीद हुए हिंदू जवानों के बच्चों के लिए तो सम्भव नहीं। हाँ, आतंकवादियों के प्रति हमदर्दी पैदा करने की कीमत तो अरब देशों से हवाला के जरिए हरदम आता ही रहता है। इसके लिए कीमत माँगने की आवश्यकता उन्हें नहीं होती, बल्कि कीमत देने वाला स्वयं चलकर उनके पास आ जाता है।
मुम्बई से अंग्रेज़ी में प्रकाशित हिंदुस्तान टाइम्स आज "कॉन्ग्रेस, कॉम्युनिस्ट्स एवं मुस्लिमों का मुखपत्र" बना हुआ है और यह आठ आने में मिलती है। घर आकर वे कूपन दे जाते हैं 350 रुपये दो वर्षों के लिए। 730 दिनों के 350 रूपये आठ आने से भी कम। पन्नों की संख्या देखिए तो जानेंगे, जो आप उन्हें समाचार पत्र की कीमत के रूप में देते हैं, महीने के बाद रद्दी के भाव बेच उससे अधिक वापस पा जाते हैं। उनके हमदर्द कहेंगे पैसा विज्ञापनों से आता है। यदि यही पूरा सत्य है तो उन्हे किसी की जी-हूजूरी करने की क्या जरुरत है? वे निष्पक्ष होकर केवल सत्य का साथ क्यों नहीं देते?
इन बड़े-बड़े अंग्रेज़ी अखबारों को वे सभी पढ़ते हैं जिनके हाथों में कोई न कोई बागडोर होती है। चाहे वह बागडोर सत्ता की हो (जैसे जनता के तथाकथित चुने हुए राजनेता), या फिर सरकारी प्रशासन की हो (जैसे आइ-ए-एस इत्यादि), अथवा न्यायाधिकरण की हो (जैसे न्यायाधीश इत्यादि), या फिर शिक्षा की हो, या फिर किसी भी महत्वपूर्ण क्षेत्र में नियंत्रण की क्षमता रखते हों ~ इन सभी की सोच एवं सहानुभूति को प्रभावित करने की क्षमता रखती है हमारी मीडिया।
इनकी चालें अनोखी हुआ करती हैं
एक दिन मैं एयरपोर्ट पर किसी की प्रतीक्षा कर रहा था तो बड़े से टीवी स्क्रीन पर मेरी नज़र पड़ी। बड़ा हो हल्ला हो रहा था। समाचार देने वाला बड़े आवेश में गर्मा-गर्म खबर दे रहा था। लोग बड़ा विरोध कर रहे थे। कुछ देर सुनने पर मुझे अहसास हुआ कि यह सब किसी सिनेमा के बारे में था। टीवी के पर्दे पर काले कोट वाले वकील आ जा रहे थे। बड़ी गहमा-गहमी थी। जो लोग बोल रहे थे वे सब किसी विशेष तबके के लग रहे थे, जैसे कि तथाकथित बुद्धिजीवी हों या फिर कुछ पहुँचे हुए लोग हों। आम जनता किसी बात का विरोध करती हुई नहीं दिखाई दे रही थी। मैं अधिक देर तक टीवी के पर्दे पर ध्यान नहीं टिका सकता था क्योंकि मुझे उनका भी ध्यान रखना था जिनके लिए मैं एयरपोर्ट आया था। हाँ, इतना जरूर है कि एक नाम बार-बार टीवी स्क्रीन पर सुनाई दे रहा था "ब्लैक फ़्राइडे"।
जो कुछ भी गड़बड़ी वहाँ चल रही थी उन सब ने मेरे दिमाग पर बस एक ही छाप छोड़ी - इस सिनेमा पर रोक लगा दी जाये क्योंकि यह न्याय की प्रक्रिया को प्रभावित कर सकती है। अर्थात यह सिनेमा न्यायाधीशों की सोच को बदल सकती है। परिणाम यह हुआ कि उस सिनेमा पर रोक लगा दी गई। हाल ही में मैंने एक खबर और पढ़ी। वह थी "ब्लैक फ्राइडे" बनाने वाले की दुविधा। आज भी वह नहीं जानता है कि उसकी पिक्चर दिखाई जा सकेगी या उसे डब्बे में ही बंद रखना पड़ेगा। उसकी दुविधा का कारण यह था कि अब तो उन कातिलों का जुर्म साबित हो चुका है और उनमें से अनेकों को सजा सुनाई जा चुकी है। इसके बावज़ूद आज स्थिति यह है कि उन्हें ऐसा लगता है कि उन कातिलों के कारनामें अदालत की चारदीवारी में ही छुप कर रह जायेगी और उन्हें जनता के सामने कभी न लाया जा सकेगा।
"ब्लैक फ्राइडे" में क्या था यह तो मैं नहीं जानता। उसमें ऐसा कुछ रहा होगा जिस पर परदा डाले रखना आवश्यक जान पड़ा होगा उन्हें जो उस षड़यंत्र में शामिल थे। उनके पास पर्याप्त साधन रहे होंगे, न केवल उस षड़यंत्र को कार्यान्वित करने के लिए, बल्कि मीडिया एवं वकीलों की जमात को अपने खेमे में शामिल कर लेने के लिए भी। उनके द्वारा रचे गये इस हंगामे के नाटक के प्रभाव में आकर न्यायपालिका ने "ब्लैक फ्राइडे" को डब्बों में बंद करवा दिया। उन्हें यह न सूझा कि एक सहज सा प्रश्न करते इन तमाशबीनों से - ऐ हंगामा करने वालों! तब कहाँ थी तुम्हारी यह बुलन्द आवाज जब तुम्हारे इन्हीं भाई-बंदों ने गुजरात पर सिनेमा बनाई थी और तब भी तुम यही बहाना देकर उन्हें रुकवा सकते थे कि यह न्याय की प्रक्रिया को प्रभावित करेगी? तब ऐसा करने के बजाय तुमने उन सिनेमाओं को खूब प्रसिद्धि दी, उन्हें पारितोषिक दिए, उनका बड़ा गुन-गान किया। पर आज तुम न्याय माँगने आये हो, वह भी ऐसा जो केवल तुम्हारे उद्देश्यों में सहायक हो। क्यों अपनाते हो ऐसी दोगली नीति, बेईमानों वाली?
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आतंकवाद का एक अन्य पहलू—राष्ट्र का इस्लामीकरण - तृतीय संस्करण [पठनीय प्रति] - ब